मकर संक्रांति एक ऐसा पर्व जो समूचे भारत में अलग-अलग रूपों में मनाया जाता है। उत्तर भारत के ज्यादातर इलाकों में इसे मकर संक्रान्ति के रूप मे मनाया जाता है वहीं तमिलनाडु मे इसे ताइ पोंगल, असम मे बिहू, कर्नाटक मे मकर संक्रमण, जम्मू मे माघी संगरांद, बिहार और उत्तरप्रदेश मे खिचड़ी एवं उत्तराखंड मे इसे उत्तरैणी और घुघुतिया त्योहार के रूप मे भी मनाया जाता है।
मकर संक्रांति 2025 की तिथि और महत्व
हिन्दू पंचांग के अनुसार आने वाले नूतन आंग्ल नव वर्ष 2025 में हिंदू पंचांग के अनुसार मकर संक्रांति 14 जनवरी 2025 को मनाई जाएगी। इस दिन सूर्य का प्रवेश धनु राशि से मकर राशि में होता है इस दिन सूर्य का मकर राशि मे प्रवेश प्रातः काल 09:03 पर होगा। मकर संक्रांति के पुण्य काल में गंगा स्नान,पूजा पाठ,दान इत्यादि का विशेष महत्व होता है।इस दिन तिल और गुड़ के लड्डू का भोग भी भगवान को लगाया जाता है।
जिस प्रकार हिन्दू धर्म में माह को दो पक्षों में बांटा गया है कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष। ठीक उसी प्रकार से वर्ष को भी दो अयनों में बांटा गया है उत्तरायण और दक्षिणायण। इन दोनों अयनों को मिला कर एक वर्ष पूर्ण होता है। सूर्य की उत्तरायण गति प्रारंभ हो जाती है इसलिए मकर संक्रांति को उत्तरायण या उत्तरायणी भी कहते हैं।
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क्यों मनाई जाती है मकर संक्रांति
पौराणिक मान्यताओं के आधार पर माना जाता है कि आज ही के दिन पतितपावनी गंगा जी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम मे आई जहाँ राजा सगर के 60 हजार पुत्रों को मुक्ति मिली। यहीं से वह गंगा सागर में मिल गईं।
कहा जाता है कि महाभारत में पितामह भीष्म ने सूर्य के उत्तरायण होने पर ही अपने इच्छामृत्यु के वरदान से शरीर का परित्याग किया था, उसका कारण यह था कि उत्तरायण में देह छोड़ने वाली आत्माएँ या तो कुछ काल के लिए देवलोक में चली जाती हैं या पुनर्जन्म के चक्र से उन्हें छुटकारा मिल जाता है अर्थात उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है।
श्रीमद्भगवत गीता के 8वे अध्याय के 24 वे श्लोक मे स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने भी उत्तरायण का महत्व बताते हुए कहा है कि जब सूर्य देव उत्तरायण मे होते हैं और पृथ्वी प्रकाशमय रहती है तो इस प्रकाश में शरीर का परित्याग करने से व्यक्ति का पुनर्जन्म नहीं होता, ऐसे लोग ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।
अग्निर्ज्योतिरह: शुक्ल: षण्मासा उत्तरायणम् |
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जना: || 24||
अर्थ: अग्नि, ज्योति, दिवस, शुक्ल पक्ष, उत्तरायण के छह महीने में प्रयाण करने वाले ब्रह्मज्ञानी, ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।अर्थात –जो ब्रह्मविद् साधकजन मरणोपरान्त अग्नि, ज्योति, दिवस , शुक्ल पक्ष और उत्तरायण के छः मास वाले मार्ग से जाते हैं, वे ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।
उत्तराखंड के कुमाऊ क्षेत्र मे मनाया जाने वाला त्योहार घुघुतिया
कुमाऊं में इस त्योहार को घुघुती त्यार के नाम से जाना जाता है। घुघुतिया त्योहार कुमाऊं में दो दिन मनाया जाता है। इन दो दिनों का विभाजन बागेश्वर में बहने वाली पवित्र सरयू नदी से किया जाता है। पहले दिन सरयू नदी के उस पार वाले लोग इसे मनाते हैं और दूसरे दिन इस पार वाले मनाते हैं। इस दिन बागेश्वर मे सरयू के तट पर प्रसिद्ध उतरैणी का मेला लगता है। इस दिन एक मीठे आटे से एक विशेष पकवान ‘घुघुते’ बनाए जाते हैं और घुघुते की माला बनाकर बच्चों को पहनाई जाती है और बच्चे कौवों को घुघुतों को खाने के लिए सुबह-सुबह आवाज़ देकर बुलाते हैं।
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घुघुतिया त्योहार के बारे में प्रचलित लोक कथा
एक प्रचलित लोक कथा के अनुसार जब कुमाऊं में चन्द्र वंश के राजा राज करते थे तो उस समय के राजा कल्याण चंद की कोई संतान नहीं थी और उनके बाद उनका कोई उत्तराधिकारी भी नहीं था। इस लिए उनका मंत्री सोचता था कि राजा के बाद राज्य उसे ही मिलेगा।
एक बार राजा कल्याणचंद अपनी पत्नी के साथ बागनाथ मंदिर (बागेश्वर)में गए और वहाँ उन्होंने संतान प्राप्ति के लिए प्रार्थना की। भगवान बागनाथ की कृपा से उनका एक बेटा हो गया जिसका नाम निर्भयचंद पड़ा। निर्भय को उसकी मां प्यार से ‘घुघुति’ कहकर बुलाया करती थी। घुघुति के गले में एक मोती की माला थी जिसमें घुंघुरू लगे हुए थे। इस माला को पहनकर घुघुति बहुत खुश रहता था।
जब वह किसी बात पर जिद करता तो उसकी मां उससे कहती कि जिद नहीं कर, नहीं तो मैं ये माला कौवे को दे दूंगी। वह उसे प्रेम से डराने के लिए कहती कि ‘काले कौवा काले घुघुति माला खा ले’। यह सुनकर कई बार कौवा आ जाता जिसको देखकर घुघुति जिद छोड़ देता। जब मां के बुलाने पर कौवे आ जाते तो वह उनको कोई न कोई चीज खाने को दे देती। धीरे- धीरे घुघुति की कौवों के साथ मित्रता हो गई।
उधर वह मंत्री, जो राजपाट की उम्मीद लगाए बैठा था, घुघुति को मारने की सोचने लगा ताकि राजा के बाद उसी को राजगद्दी मिले। एक बार मंत्री ने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर षड्यंत्र रचा। ज़ब एक दिन घुघुति खेल रहा था, तब वह उसे चुप-चाप उठाकर जंगल की ओर ले गया।
ज़ब वह घुघुति को जंगल की ओर लेकर जा रहा था, तो एक कौवे ने उसे देख लिया और जोर- जोर से कांव-कांव करने लगा। उसकी आवाज सुनकर घुघुति जोर-जोर से रोने लगा और अपनी माला को उतारकर दिखाने लगा। इतने में सभी कौवे इकट्ठे हो गए और मंत्री और उसके साथियों पर मंडराने लगे। उनमें से एक कौवे ने घुघुति के हाथ से माला झपटकर ले ली ओर उड़ गया सभी कौवों ने एकसाथ मंत्री और उसके साथियों पर अपनी चोंच और पंजों से हमला बोल दिया। मंत्री और उसके साथी घबराकर वहां से भाग गए।
घुघुति जंगल में अकेला रह गया। वह एक पेड़ के नीचे बैठ गया तथा सभी कौवे भी उसी पेड़ में बैठ गए। जो कौवा घुघुति के हाथ से माला लेकर गया था, वह सीधे महल के बाहर जाकर एक पेड़ पर बैठ जोर- जोर से कांव-कांव करने लगा। जब लोगों की नजरें उस पर पड़ीं तो उसने घुघुति की माला घुघुति की मां के सामने डाल दी। उस माला को सभी ने पहचान लिया कि यह माला घुघुति की है।
सबने अनुमान लगाया कि कौवा घुघुति के बारे में कुछ जानता है। राजा और उसके घुडसवार कौवे के पीछे चले गए। कुछ दूर जाकर कौवा एक पेड़ पर बैठ गया जहाँ और भी बहुत सारे कौवे बैठे थे । राजा की नजर उस पेड़ के नीचे सोये हुए अपने बेटे पर पड़ी, उसने अपने बेटे को उठाया और गले से लगाया फिर वह उसे लेकर अपने घर आ गया। घर पर अपने बेटे को वापस देखकर बेसुध पड़ी घुघुति की माँ ने उसे गले लगाया । माँ ने घुघुति की वह माला दिखाकर कहा कि अगर आज यह माला नहीं होती तो मेरा घुघुति जिंदा नहीं रहता।
राजा ने मंत्री और उसके साथियों को मृत्युदंड दे दिया। घुघुति के मिल जाने पर मां ने बहुत सारे पकवान बनाए और घुघुति से कहा कि ये पकवान अपने दोस्त कौवों को बुलाकर खिला दे। घुघुति ने कौवों को बुलाकर खाना खिलाया। इसी कारण यह त्योहार बच्चों के त्योहार का रूप मे हर साल मनाया जाता है।
भास्करस्य यथा तेजो मकरस्थस्य वर्धते ।
तथैव भवतां तेजो वर्धतामिति कामये ॥
जैसे मकरराशी में सूर्य का तेज बढता है, उसी तरह आपके स्वास्थ्य और समृद्धि की हम कामना करते हैं।
मकर संक्रांति न केवल धार्मिक बल्कि सांस्कृतिक और वैज्ञानिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण पर्व है। यह पर्व पूरे भारत में उत्साह और भक्ति भाव के साथ मनाया जाता है। इस दिन की परंपराएँ और मान्यताएँ भारतीय संस्कृति की गहराई को दर्शाती हैं।
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