- बुढ़ी दिवाली (बुढ़ दिवाई)
उत्तराखंड में बुढ़ी दिवाली (जिसे “अंधेरी दिवाली” भी कहा जाता है) एक प्राचीन परंपरा है, जो मुख्यतः कुमाऊं और जौनसार-बावर क्षेत्रों में मनाई जाती है। इसे दिवाली के लगभग 11 दिन बाद मनाया जाता है। इस पर्व के पीछे मान्यता है कि यह पर्व भगवान राम के वनवास से लौटने और रावण पर विजय प्राप्त करने की खुशी में मनाया गया था। लेकिन पर्वतीय क्षेत्रों में इस खबर को पहुँचने में समय लग गया, इसलिए वहां दिवाली देरी से मनाई गई। इस कारण इसे “बुढ़ दिवाई (बुढ़ी दिवाली)” या “पुरानी दिवाली” कहा जाने लगा।
धार्मिक मान्यतानुसार इस दिन चार माह के पश्चात भगवान श्रीविष्णु जागृत अवस्था में आ जाते हैं। मुख्य अमावस के दिन की दिवाली को युवा लक्ष्मी का पूजन होता है। चूंकि इस अवधि में श्रीविष्णु निद्रा में रहते हैं इसलिए अकेले ही माता लक्ष्मी के पदचिन्ह “पौ” की छाप ऐपणों के साथ दी जाती है। जब कि अंतिम चरण की दिवाली बुढ़ दिवाई (बूढ़ी दिवाली) के रूप में मनाई जाती है।
इस दिन घर के अंदर से भुईयां निकली जाती है। कुमाउनी समाज में भुईयां को दुख, दरिद्र, रोग, शोक का प्रतीक माना जाता है। भुईयां को गाँव के ओखल, सूप, डलिया में गेरू व बिस्वार से चित्रित किया जाता है। सूप में चित्रित भुईयां को महिलायें सुबह सवेरे घर के प्रत्येक कमरों से बाहर निकालती हुई आँगन तक ले जाती हैं। खिल बिखेरते हुए गन्ने के डंडे से सूप को पीटा जाता है और “आओ लक्ष्मी बैठो नरैण………भागों भुईयां घर से बाहर” कहते हैं सूप में रखे दाड़िम और अखरोट के दानों को आँगन में तोड़ा जाता है साथ ही तुलसी व ओखल में दिया जलाया जाता है। इसके पश्चात घर के कमरों में प्रवेश करते हुए “आओ लक्ष्मी बैठो नरैण” कहते हुए व खिल बिखेरते हुए आते हैं।
- इगास त्यौहार
इगास त्यौहार, जिसे इगास-बग्वाल भी कहा जाता है, उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में विशेष रूप से मनाया जाता है। यह दिवाली के 11 दिन बाद, ज्यादातर कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन मनाया जाता है। इस त्यौहार का महत्व गढ़वाल क्षेत्र के लोगों के लिए बहुत अधिक है और यह उनकी सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा है। इगास त्यौहार में लोग पारंपरिक नृत्य करते हैं, गीत गाते हैं, और अपने पालतू पशुओं की पूजा करते हैं। साथ ही, भैलो (एक विशेष प्रकार से चीड़ के छिलकों और भीमल की डंडियों को जलाकर) सार्वजनिक स्थानों में मंडाण खेलते हैं, जो इस पर्व की एक विशेषता है।
गढ़वाल क्षेत्र के अलावा, कुछ अन्य ग्रामीण क्षेत्रों में भी इगास मनाई जाती है।
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उत्तराखंड के इगास-बग्वाल त्यौहार से कई कहानियाँ जुड़ी हुई हैं, जो इसके ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व को दर्शाती हैं। इनमें से कुछ प्रमुख कथाएँ निम्नलिखित हैं:
1. महाभारत से जुड़ी कथा: एक मान्यता के अनुसार, महाभारत युद्ध के दौरान जब पांडव युद्ध में विजयी होकर लौटे, तो गढ़वाल के लोगों को इस खबर के पहुंचने में समय लग गया। जब उन्हें यह पता चला कि पांडव विजय प्राप्त कर चुके हैं, तब उन्होंने खुशी में इगास का त्यौहार मनाया। इसलिए इसे दिवाली के 11 दिन बाद मनाने की परंपरा बनी।
2. गब्बर सिंह बिष्ट की वीरता: एक लोककथा के अनुसार, गढ़वाल क्षेत्र के वीर योद्धा गब्बर सिंह बिष्ट जब किसी युद्ध में अपनी वीरता का प्रदर्शन कर लौटे, तो गाँव वालों ने उनकी बहादुरी का सम्मान करने के लिए इस त्यौहार को मनाया। इगास का त्यौहार उनकी वीरता की याद में मनाया गया था और धीरे-धीरे यह पर्व बन गया।
3. भगवान राम के वनवास से जुड़ी कथा: कुछ जगहों पर ऐसा भी माना जाता है कि जब भगवान राम वनवास के बाद अयोध्या लौटे, तो पहाड़ी क्षेत्रों में यह समाचार देर से पहुँचा। इसलिए स्थानीय लोगों ने दिवाली के 11 दिन बाद इगास का त्यौहार मनाया।
4. पशुओं की पूजा: उत्तराखंड में पशुधन को परिवार का महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है, और इगास-बग्वाल पर पालतू पशुओं की पूजा की जाती है। यह पर्व पशुओं के प्रति आभार प्रकट करने और समृद्धि की कामना के रूप में मनाया जाता है।
इन कथाओं के माध्यम से इगास का पर्व उत्तराखंड की संस्कृति, परंपराओं, और ऐतिहासिक वीरता को सम्मान देने का प्रतीक बन गया है।
- हरि दोहर त्यौहार
हरि दोहर त्यौहार उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में मनाया जाने वाला एक पारंपरिक पर्व है, जिसे विशेष रूप से कृषि और प्रकृति के प्रति आभार प्रकट करने के लिए मनाया जाता है। यह पर्व शरद ऋतु में फसल कटाई के समय मनाया जाता है, जब खेतों में धान और अन्य फसलों की कटाई हो जाती है। “हरि” का अर्थ है भगवान, और “दोह” का अर्थ है आशीर्वाद या दया।
भारत में शरद ऋतु, मानसून के बाद और सर्दियों से पहले आती है। यह ऋतु सामान्यतः आश्विन और कार्तिक के महीनों में होती है, जो कि ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार सितंबर के अंत से लेकर नवंबर के मध्य तक रहती है। इस अवधि में मौसम सुहावना और साफ़ होता है, हवा में नमी कम हो जाती है, और ठंडक का हल्का एहसास होने लगता है।
इस त्यौहार में ग्रामीण लोग फसल की अच्छी पैदावार के लिए भगवान का धन्यवाद करते हैं। हरि दोहर के दौरान किसान हल और बैलों की पूजा करते हैं, बैलों के सींगों पर तेल लगा कर उनका तिलक किया जाता है। लकड़ी से बने हल को लाल मिट्टी से लीप कर उस पर चावल से बने पेस्ट से सुंदर ऐपण उकेरे जाते हैं, बांस या रिंगाल से बने “सूप” (जो अनाज छींटने के काम आता है) उस पर भी ऐपण दिए जाते हैं। इसके साथ ही ओखली और मूशल की पूजा भी की जाती है। यह पर्व गाँव में एकजुटता, सांस्कृतिक धरोहर और प्रकृति के प्रति आस्था का प्रतीक है।
इस त्योहार से जुड़ी एक स्थानीय किवदंती है कि एक बार एक किसान होता है जो बारिश ना हो पाने के कारण अपने खेतों को नहीं जोत पाता। भगवान से प्रार्थना करता है कि जल्द से जल्द बारिश हो जाए, ताकि वो खेतों को जोत सके। इस तरह कुछ दिनों बाद उसकी मनोकामना पूरी होती है और वह किसान खुश होकर खेतों की जुताई करने लगता है। फसल के पिछड़ जाने का डर भी उसके मन में होता है और वह लगातार बिना रुके खेतों मे हल चलाता है, उसे हल जोतते हुए रात बीत जाती है और नई सुबह हो जाती है। इस तरह जहां तक वह हल जोत चुका होता है उन सभी इलाकों में हरी – दोहर का त्योहार मनाया जाता है और हल की पूजा की जाती है।
हरि दोहर त्यौहार ग्रामीणों की मेहनत का जश्न और फसल कटाई की खुशी का प्रतीक है।
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