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Wednesday, October 9, 2024

1857 विद्रोह में इनफील्ड राइफल में चर्बीयुक्त कारतूसों का उपयोग क्या इतना गंभीर मामला था कि सैनिकों (हिंदू और मुस्लिम) को अपना धर्म ख़तरे मे लगा? अगर ऐसा था तो उन्ही सैनिकों ने विद्रोह के समय इन्हीं राइफलों का प्रयोग क्यों किया?

स्वतंत्रता दिवस विशेष । सन् 1857 के विद्रोह की इस ऐतिहासिक घटना का भारतीय इतिहास पर दूरगामी प्रभाव पढ़ा। एक ओर इसने भारत में मध्यकाल के अंत की घोषणा कर दी, तो दूसरी ओर औपनिवेशिक सत्ता ने अब अधिक संस्थागत रुप धारण कर लिया। भारत में विदेशी शासन, जिनकी नींव ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा 1757 के प्लासी की पराजय से ही पढ़ गयी थी, अब सीधे ब्रिटिश संसद से नियंत्रित होना आरंभ हुआ। 1857 को अंग्रेज प्रशासक और औपनिवेशिक इतिहासकार एक सिपाही विद्रोह से अधिक कुछ भी मानने को तैयार नहीं थे।  जिसके कारण उनके मतानुसार, भारतीयों की धार्मिक, साँस्कृतिक भावनाओं का आहत होना था। सुअर और गाय की चर्बीयुक्त कारतूसों को कंपनी राज के विरुद्ध सैनिकों के विद्रोह का मूल कारण माना गया। इस तरह के अपूर इतिहासलेखन में भारतीयों की राय जानने की कोशिश ही नहीं की गई। भारतीय आमधारणा में 1857 सदैव ही अंग्रेजों के प्रति उनके संघर्ष का पहला गौरवपूर्ण अध्याय ही बना रहा। पिछले 150 वर्षों में 1857 के विद्रोह के कारणों एवं इसकी प्रकृति की जितनी चर्चा इतिहासकारों के मध्य हुई है, उतनी आधुनिक इतिहास के किसी विषय की नहीं हुई। 1857 के विद्रोह के राजनीतिक-आर्थिक कारणों से आरम्भकर उसमें जनभागीदारी, किसानों की भूमिका से लेकर आज दलितों, जनजातियों एवं महिलाओं की भागीदारी तक पर गंभीर शोध किये जा रहे हैं। जहाँ हाल के 30  ऐतिहासिक लेखनों में से एक, विलियम डॉर्लिम्पल ने 1857 के विद्रोह को पुन: ‘मुसलमानों का अंग्रेजों के विरुद्ध  ‘जिहाद’ कह कर इसके महत्व को कम करने की कोशिश की है, वहीं अनेक भारतीय इतिहासकारों  ने 1857 के दौरान हिन्दुओं और मुसलमानों की बेमिसाल एकता के अनेकों दृष्टांत दिये हैं इन सारे अध्ययनों का एक अच्छा परिणाम यह भी हुआ है कि 1857 के विद्रोह से सम्बंधित अनेकों दास्तावेज़ खोज लिये गये हैं। अग्रेज़ी के सरकारी दस्तावेजों एवं चिट्ठी -पत्रियों के अलावा उर्दू के अनेक देसी पत्र-पत्रिकाएँ , घोषणाऐं , पुस्तिकाएं 1857 के इतिहासलेखन के सबसे महत्वपूर्ण स्रोत हैं। फिर भी, 1857 का इतिहास जानने के लिए विद्रोहियों के स्वयं के दास्तावेज़ों का तो लगभग अभाव ही है। इसने 1857 के विद्रोहियों की विचारधारा  और उनके संगठन के तरीकों को जान पाना मुश्किल कर दिया है।

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1857 के विद्रोह के वास्तविक कारण क्या थे अर्थात्‌ क्या इनफील्ड राइफल में चर्बीयुक्त कारतूसों का उपयोग इतना गंभीर मामला था कि सैनिकों (हिंदू और मुस्लिम) को अपना धर्म ख़तरे मे लगा? अगर ऐसा था तो उन्ही सैनिकों ने विद्रोह के समय इन्हीं राइफलों का प्रयोग क्यों किया? इतिहासकारों के विश्लेषण से निकले विभिन्‍न कारणों को जानने के साथ-साथ, हम 1857 के विद्रोह के विस्तार पर भी चर्चा करेंगे।

1857 1857 विद्रोह में इनफील्ड राइफल में चर्बीयुक्त कारतूसों का उपयोग क्या इतना गंभीर मामला था कि सैनिकों (हिंदू और मुस्लिम) को अपना धर्म ख़तरे मे लगा? अगर ऐसा था तो उन्ही सैनिकों ने विद्रोह के समय इन्हीं राइफलों का प्रयोग क्यों किया?
10 मई 1857 को मेरठ में विद्रोह का झंडा बुलन्द कर बंगाल नेटिव इन्फैन्ट्री रेजीमेन्ट के सिपाही 11 मई को जब दिल्‍ली पहुँचे, तब 1857 के महान विद्रोह का आरंभ हो गया। सिपाहियों ने इससे पहले भी कई बार विद्रोह का झंडा उठाया था। मार्च में कलकला के निकट बैरकपुर की घटना के बाद अप्रैल में आगरा, इलाहाबाद और आम्बाला में भी छिटपुट घटनाएं हो चुकी थीं। परंतु मेरठ से सैनिकों के विद्रोह का दिल्‍ली आगमन महत्वपूर्ण था। इसके पश्चात सैनिकों द्वारा शायर और बूढ़े बादशाह बहादुर शाह  ‘ज़फर” को अपना शासक घोषित करना विद्रोह को एक व्यापक राजनीतिक कार्यवाही बना देता है। यह घटना विद्रोह की चिंगारी से फैलने का कारण बन गयी। दिल्‍ली की घटना के एक माह के भीतर ही कानपुर, लखनऊ, बनारस, इलाहाबाद, कली, जगदीशपुर और झांसी जैसे गंगा-यमुना दोआब के महत्वपूर्ण शहर 1857 के विद्रोह के बड़े केंद्र बन गये। कानपुर से मराठा पेशवाई के दावेदार नाना साहेब, बरेली के खान बहादुर, जगदीशपुर के कुँवर सिंह, लखनऊ में बेगम हज़रत महल तथा झांसी में रानी लक्ष्मीबाई आदि ने तुरंत ही बहादुर शाह को अपना बादशाह घोषित कर दिया। यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना उचित होगा कि विद्रोह निश्चित ही  एक आकस्मिक घटना थी, और इसके लिए पहले से कोई योजना नहीं बनाई गयी थी। हालांकि विद्रोह के कारण आकस्मिक नहीं थे और पिछले 100 वर्ष में भारत में अपनाई गई ब्रिटिश नीति का परिणाम थे। आशर्यजनक रूप से शीघ्र ही “धार्मिक षड्यन्त्र” का यह विचार ‘मुस्लिम साजिश’ कहा जाने लगा। यहाँ तक कि यह विचार कमोबेश आजतक बना रहा है।

हाल ही में ‘द लास्ट मुग़ल’ के लेखक विलियम डॉलिंग्पल ने 1857 के दस्तावेजों का अध्ययन करते हुए इसमें ‘जिहाज’ और ‘मुजाहिद’ शब्दों का भरमार में प्रयोग को देखते हुए 1857 के विद्रोह को मुसलमानों द्वारा किये जा रहे धार्मिक युद्ध यानी जिहाद की संज्ञा दी है। 2001  के पीस में, जब दुनिया अमेरिका मे हुई आतंकी कार्यवाही की दहशत में थी, 1857 को ‘मुस्लिम जिहाद’ बताना एक अत्यन्त आकर्षक एवं पार बिकाऊ विचार था। 1857 में विद्रोहियों की धार्मिक पहचान कितना माने रखती थी, इस पर विचार करते हुए सब्यासाची भट्टाचार्य ने विद्रोहियों मे सहयोग और विरोध के आधार को विभिन्‍न पहचानों से जोड़ा है।

1857  के विद्रोह के कारणों का भारतीयों द्वारा किए गये विश्लेषण में पहला नाम सर सैप्यद अहमद ख़ान का आता है। उन्होंने 1858 में लिखी अपनी पुस्तक ‘असबाब बगावते  हिन्द’ में बगावत (विद्रोह) के लिए ब्रिटिश नीतियों को ज़िम्मेदार ठहराया। यही नहीं, वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने इसे जनता का विद्रोह कहा, 1857 के विद्रोह पर उनके लेखन को लम्बे समय तक नज़रअंदाज़ ही किया गया। उल्लेखनीय है कि 1947 में भारतीय स्वतंत्रता से पूर्व  इतिहासकार 1857 को सैनिक विद्रोह से अधिक कुछ भी मानने को तैयार नहीं थे। तब वी. डी. सावरकर ने 1907 में पहली बार विद्रोह को ‘भारत का पहला स्वतंत्रता युद्ध’ घोषित किया था।

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औपनिवेशिक विस्तार और शोषण से उत्पन्न समस्याओं को छिपाना और औपनिवेशिक प्रशासकों एवं घरेलू लोगों को सांत्वना प्रदान करना था। यहाँ तक की, औपनिवेशिक स्रोतों में महान विद्रोह को ‘सिपाही विद्रोह’ के रूप में पेश किया गया जो ‘बग़ावत’ (जनविद्रोह) में विकसित हो गया। बी. पती के अनुसार यही औपनिवेशिक विचार राष्ट्रवादी और बाद में सबअलटर्न इतिहासलेखन मे भी बना रहा। औपनिवेशिक इतिहासलेखक साम्राज्य के प्रति पूर्वाग्रह रखते थे। फिर भी, अनेक अंग्रेज़ो को 857 के विद्रोह के मात्र एक सैनिक विद्रोह होने मे विश्वास नहीं था। ब्रिटिश पार्लियामेण्ट में विपक्ष के नेता डिज़राईली ने पार्लियामेण्ट में चर्चा करते हुए कहा कि “वर्तमान भारतीय अव्यवस्था’ एक सैनिक विद्रोह नहीं बल्कि राष्ट्रीय विद्रोह है। इसी प्रकार जस्टिन मैककार्टी का मत था कि “भारतीय प्रायद्वीप में यह भारतीय प्रजातियों का अंग्रेज़ शक्ति के खिलाफ विद्रोह था।” मैकलायड का विचार था कि कम से कम अवध के लोगों के संघर्ष को तो स्वतंत्रता का युद्ध मानना चाहिए।

इन विचारों के बावजूद औपनिवेशिक इतिहासलेखन की प्रवृत्ति 1857 को एक “सैनिक विद्रोह’ की भाँति ही देखने की रही। विलियम डार्लिम्पल ने कहा कि दिल्‍ली में विद्रोह एक “आयातित’ घटना थी। मेरठ से आये 300 सिपाहियों ने दिल्‍ली पर कब्ज़ा कर लिया और बादशाह तथा दिल्‍ली वालों को निर्देशित किया। हालांकि, डार्लिम्पल ने 1857 को मूलत: एक “धर्मयुद्ध’ की तरह देखा और इसे इस्लाम की जिहाद की विचारधारा से जोड़ दिया, जो हमारे समय में तालिबान और अल कायदा के रूप मे अभिव्यक्त हो रही है। के. सी. यादव ने उनके इस मत का खण्डन करते हुए इसे ‘महान गलत व्याख्या’ कहा है। यादव ने समकालीन स्रोतों के माध्यम से तर्क दिया कि “उस समय जिहाद यानि मुस्लिम संघर्ष, हिंदुओं के साथ मिलकर, काफिरों अर्थात अंग्रेज़ो के विरुद्ध हो रहा था, जो उनके दीन और इमान,स्वतंत्रता और इज़्ज़त को नष्ट कर रहे थे। यादव ने बताया कि विद्रोह के दस्तावेज़ों से पता चलता है कि वास्तव में हिंदुओं ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध जिहाद शब्द का प्रयोग किया। हालांकि, औपनिवेशिक इतिहासलेखन में 1857 को एक धार्मिक संघर्ष के रूप में देखना भी कोई नया विचार नहीं है। लन्दन टाइम्स के लिए लिखते हुए सर डब्लू. रसेल ने 1857 को “धर्म का युद्ध और प्रजाति का युद्ध” कहा था।
1857 के स्वरूप और प्रकृति को लेकर राष्ट्रवादी इतिहासलेखन अतिवाद या असमंजस से ग्रसित दिखाई पड़ता है। मशहूर इतिहासकार आर.सी. मजुमदार, जिन्हें पहले सरकार द्वारा गठित कमेटी में रखा गया था जिसे 1857 का इतिहास लिखना था, ने सरकारी प्रयासों से अलग “द सि्पॉय म्युटिनी एण्ड द रिवोल्ट ऑफ 1857″ नाम से 1857 का इतिहास लिखा। जैसा कि पुस्तक के नाम से ही स्पष्ट था, मजुमदार ने 1857 को मूलत: एक सैनिक विद्रोह और भारत्तीय राजाओं का विद्रोह ही माना।

 

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