19.8 C
Uttarakhand
Wednesday, October 9, 2024

स्वतंत्रता दिवस विशेष: अधिकारों के हनन की सुगबुगाहट ने कैसे दिया भारत में 1857 के विद्रोह को जन्म ?

स्वतंत्रता दिवस विशेष : 1857 के विद्रोह को भारत में ब्रिटिश शासन की नींव या बुनियाद हिलाने के संदर्भ में एक युगान्तकारी घटना की तरह देखा जा सकता है। इस विद्रोह ने अंततः भारत में ब्रिटिश इस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन हमेशा के लिए समाप्त कर दिया। इस विद्रोह के बाद एक बड़ा राजनीतिक परिवर्तन हुआ और भारत का शासन ईस्ट इण्डिया कम्पनी से  छीन कर अब महारानी अथवा ब्रिटिश ताज को सौंप दिया गया। उपनिवेशवाद विरोधी इस विद्रोह की महत्ता को कम करने के लिए आरम्भ में इसे केवल एक सैनिक विद्रोह की संज्ञा दी गई। सैनिक विद्रोह की धारणा के प्रणेता मुख्य रूप से कम्पनी के अधिकारी ही थे। इस महान उपनिवेशवाद विरोधी विद्रोह को केवल सैनिक विद्रोह के रूप में देखने का मुख्य उद्देश्य यह था कि कम्पनी इस तथ्य को सामने नहीं लाने देना चाहती थी कि भारत का जनमानस कम्पनी के शासन से त्रस्त है और अगर इसे सैनिक विद्रोह के बाहर देखा जाता तो इसे कम्पनी के शासन को औचित्य समाप्त हो जाता।

इस प्रकार सैनिक तथा असैनिक विद्रोहों के बीच के राजनैतिक अन्तर को समझते हुए इस उपनिवेशवादी शासन के दौरान, चाहे वह कम्पनी का शासन हो या ब्रिटिश क्राउन का, विभिन्‍न लोकप्रिय जनजातीय तथा असैनिक विद्रोह की प्रकृति को समझने की कोशिश करेंगे।भारत की सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक व्यवस्था में शायद सबसे उपेक्षित समाज, अर्थात्‌ आदिवासी समाज, विभिन्‍न भौगोलिक क्षेत्रों में शासक वर्ग के विरूद्ध विद्रोह करने में क्यों मजबूर हुआ। इस इकाई में हम केवल जनजातीय विद्रोह की ही नहीं बल्कि विभिन्‍न असैनिक विद्रोह की भी चर्चा करेंगे।जनजातीय तथा असैनिक विद्रोह की प्रकृति को समझने के लिए न केवल शासन व्यवस्था को समझना पड़ेगा बल्कि शोषण व्यवस्था को भी उतनी ही गहराई से समझने की आवश्यकता है। हम इस बात को भी समझने की कोशिश करेंगे कि जनजातीय तथा असैनिक विद्रोह में शामिल जनता क्या केवल उपनिवेशिक शासन या उपनिवेशिक शोषण विरोधी भी था। उनका विरोध भारतीय सामाजिक व्यवस्था में मौजूद उस शोषक वर्ग से भी था जो शोषित जनता से (आदिवासी तथा गैर आदिवासी) से उनके जीवन जीने का अधिकार भी छीन रहे थे।

pexels suzyhazelwood 8664951 scaled स्वतंत्रता दिवस विशेष: अधिकारों के हनन की सुगबुगाहट ने कैसे दिया भारत में 1857 के विद्रोह को जन्म ?

जनजातीय विद्रोह

भारतीय उपमहाद्वीप में ऐतिहासिक काल से ही आदिवासी लोगों के लिए राजनैतिक रूप से प्रेरित विभिन्‍न प्रकार के नामों का प्रयोग किया जाता रहा है। इन नामों अथवा शब्दों का प्रयोग गैर-आदिवासी समाज द्वारा आदिवासियों की राजनैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक महत्ता को कम करने के लिए अक्सर होता रहा है। जहाँ एक ओर वैदिक साहित्यों में उनका वर्णन असुर के रूप में हुआ, वहीं ब्राह्मणवादी स्त्रोत उन्हें राक्षस के रूप में दर्शाते हैं। आज भी उनके लिए जंगली शब्द का प्रयोग किया जाता है जोकि ‘असभ्य’ का एक पयार्यवाची शब्द बनकर रह गया है। सदियों से यह माना जाता रहा है कि आदिवासी संस्कृति में नैतिकता या आचार-विचार से संबन्धित किसी भी धारणा के लिए कोई स्थान नहीं है। यह समाज ‘असभ्य’ लोगों का एक समूह है जिन्हें समाज की मुख्य धारा से अलग रखना चाहिए।

आदिवासियों के ‘असभ्य’ रूप में वर्णन को कानूनी तौर पर या औपचारिक रूप से उपनिवेशिक कानून ने मान्यता प्रदान की।  1857 एक्ट के प्रस्तावना में संथालों का वर्णन ‘असभ्य’ नस्ल के लोगों के रूप में किया गया है। शोषक वर्ग ने हमेशा से अपने आर्थिक शोषण को मान्यता प्रदान करने के लिए सभ्यता को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया। इस वर्ग द्वारा हमेशा यह दिखाने की कोशिश की गई किवह आदिवासी समाज के आर्थिक तथा सामाजिक विकास के लिए उन्हें ‘सभ्य’ बनाने की कोशिश कर रहे हैं। प्राचीन काल से वर्तमान समय तक आदिवासीयों का शोषण जारी रहा बस फर्क सिर्फ इतना है कि शोषण वर्ग ने अपने शोषण को औचित्य प्रदान करने के लिए अलग-अलग कालों में अलग-अलग शब्दों का प्रयोग किया। जहाँ एक ओर वैदिक काल में आदिवासियों को असुर तथा असभ्य बताकर उनकी जमीन जंगल तथा आर्थिक संसाधनों पर कब्जे को जायज ठहराया जाता था तो वहीं दूसरी ओर उपनिवेशिक शासनकाल में तथा आधुनिक पूँजीवादी समाज में आदिवासियों को मुख्य-धारा में लाने तथा उन्हें विकसित करने के नाम पर उनके प्राकृतिक संसाधनों
का दोहन किया जाता रहा है।

भारत के अन्य क्षेत्रों की तरह आदिवासी भू-भाग में भी औपनिवेशिक शोषण के विरूद्ध विद्रोह हुआ, लेकिन आदिवासी क्षेत्रों में होने वाले विद्रोहों की प्रकृति शेष भारत में होने वाले विद्रोह से भिन्‍न है। यहाँ पर विद्रोह केवल औपनिवेशिक शासन के विरूद्ध नहीं था गैर- आदिवासी अर्थात्‌ ‘दिकुओं’ के भी विरूद्ध था। बाहरी शोषण के विरूद्ध आदिवासियों को एकजुट करने में उनकी पहचान की चेतना ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । जनजातीय विद्रोह के संदर्भ में यहाँ हम मुख्य रूप से कुछ बड़े आदिवासी विद्रोह जैसे, संथाल विद्रोह, मुण्डा विद्रोह, ताना भगत आन्दोलन तथा भील समाज के आन्दोलन की चर्चा करेंगे। कुछ अन्य छोटे परन्तु राजनैतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण आदिवासी विद्रोह की चर्चा की आवश्यकता भी जरूरी हो जाती है। जैसे- रानी गाइदिन्ल्यू का आन्दोलन |

  • मुण्डा उल्गुलन

    विद्वानों के अनुसार छोटा नागपुर क्षेत्र में उपनिवेशवाद-विरोधी भावना का शुरूआत 7795 से होती है। जब स्थायी बन्दोबस्त को इस क्षेत्र में जबरन थोपा गया। अरविन्द पिन्टो कहते हैं कि विनिमय के माध्यम के रूप में पैसे के इस्तेमाल तथा बाजार प्रणाली के विस्तार के कारण आदिवासियों को अपनी जमीन से हाथ धोना पड़ा। राजस्व वसूली की प्रक्रिया के दौरान जमीदारों के जुल्म ने स्थिति को और भी भयावह बना दिया। कृषिगत संरचना के दूटने के कारण आदिवासी संस्कृति का विघटन होने लगता है, जिसने अंततः छोटा नागपुर क्षेत्र के आदिवासी आन्दोलन को जन्म दिया जिसमें प्रमुख सरदारी लड़ाई तथा बिरसा विद्रोह हैं। बिरसा आन्दोलन को हम पुरुत्थानवादी आन्दोलन के रूप में भी देख सकते हैं जहाँ मुण्डा के स्वर्ण युग की याद को मस्तिष्क में ताजा करने के लिए अतीत का महिमा मंडन किया गया। नई राजस्व व्यवस्था को उस क्षेत्र में थोपने के कारण आदिवासी समाज का विघटन बहुत तेजी से होने लगता है। भूमि संसाधनों पर सामुदायिक अधिकारों को जमीन के व्यक्तिगत स्वामित्व द्वारा एक वस्तु बनकर रह जाती है। उस सामाजिक आर्थिक संकट को दूर करने के लिए बिरसा ने अपने अनुयायियों को  जमींदारों से जमीन छीनने के लिए उत्तेजित करना शुरू कर दिया। इस पृष्ठभूमि में आदिवासियों का यह धार्मिक कर्तव्य बन जाता है कि वह दिकुओं के इस दमनकारी व्यवस्था के विरूद्ध जंग छेड़ दें।

बिरसा आन्दोलन जिसकी शुरूआत एक धार्मिक सुधार आन्दोलन के रूप में हुई जल्द ही यह कृषिगत तथा राजनैतिक आन्दोलन का रूप ले लेता है। बिरसा ने आदिवासी जनमानस से खासकर मुण्डा समुदाय के लोगों से आह्वान किया कि वे तमाम बाहरी लोगों, जिसमें जमींदार, महाजन तथा बनिया शामिल हैं, को मुण्डाराज स्थापित करने का वचन दिया। इस खतरे को भांपते हुए उपनिवेशिक सरकार ने बिरसा मुण्डा को गिरफ्तार कर लिया। नवम्बर 1895 में ढाई वर्ष क कड़ी सजा सुनाई गयी।

1897 में जब यह कारावास से बाहर आये तब ऐसा लगा कि वह अपनी लड़ाई को लेकर और भी ज्यादा प्रतिबद्ध हैं तथा वह अपनी लड़ाई और भी अधिक जुझारू ढंग से लड़ने के लिए तैयार हैं। आदिवासी समाज पर जो बाहरी दमनकारी व्यवस्था थोपी गई थी, उसके विरूद्ध वह विद्रोह की तैयारी में लग गए। उन्होंने न केवल उपनिवेशिक न्यायिक व्यवस्था की वैद्या पर सवाल उठाया बल्कि अपने अनुयायियों को यह आदेश दिया कि वे उन सभी बाहरी लोगों पर हमला कर उनकी हत्या कर दें जो आदिवासी समाज मुख्य रूप से मुण्डा आदिवासियों की इस दयनीय हालत के लिए जिम्मेदार है। स्वर्ण युग को स्थापित करने की जरूरत को वह बार-बार अपने अनुयायियों को याद दिलाते थे। आदिवासी आबादी मुख्य रूप से मुण्डा आदिवासी समुदाय के लोग जो 1899 की आकाल से पीड़ित थे, बिरसा का साथ देने के लिए तैयार हो गए।

20वीं सदी के शुरू होते ही अर्थात्‌ जनवरी, 1900 में मुण्डा विद्रोह की शुरूआत हो जाती है। लगभग 300 मुण्डा तीर कमान से लैस खुंटी पुलिस स्टेशन पर हमला कर देते हैं जिसमें कई सिपाही मारे जाते हैं। उसके बाद प्रशासनिक अधिकारियों के घरों को भी आग के हवाले कर दिया जाता है। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए सेना की मदद ली जाती है तथा बड़ी संख्या में बिरसा के अनुयायियों को गिरफ्तार कर लिया जाता है। बिरसा की जेल में ही मृत्यु हो जाती है। लगभग 87 लोगों पर आरोप सिद्ध होता है जिसमें दो को फांसी तथा अन्य को कारावास की सजा सुनाई गई।

एल0पी0 माथुर का मानना है कि बिरसा के इस आन्दोलन में सहजवाद तथा पुनरूत्थानवाद की भावना को आसानी से देखा जा सकता है। लेकिन इस महान विद्रोह के नता पर हिन्दू तथा इसाई धर्म के प्रभाव को भी नकारा नहीं जा सकता है। बिरसा के उपनिवेशवाद विरोधी दृष्टिकोण के कारण कुछ इतिहासकारों ने उन्हें आरंभिक स्वतंत्रता सेनानी तथा एक जुझारू भारतीय देश-भक्त के रूप में देखा जा सकता है। इस विश्लेषण पर अपनी असहमती दर्ज करते हुए स्टीफन फच कहते हैं कि बिरसा केवल उपनिवेशिक शासन को ही आदिवासी समाज का शोषक समझते थे बल्कि उनकी नजर में बनिया, महाजन तथा जमींदार भी उतने ही. दमनकारी थे। फंच आगे कहते हैं कि यह विद्रोह मुख्य रूप से मुण्डा समुदाय तक ही सीमित था। अन्य आदिवासी समुदाय के लोगों की उसमें अपने लिए कोई जगह नहीं दिख रही थी।

स्टीफन फेंच की धारणा से अपनी सहमति व्यक्त करते हुए कुमार सुरेश सिंह कहते हैं कि बिरसा विद्रोह अनिवार्य रूप से ब्रिटिश-विरोधी नहीं था। इस आन्दोलन के पीछे मुख्य विचारधारा उस दमनकारी व्यवस्था के विरूद्ध लड़ना था जो आदिवासी समाज के सामाजिक-आर्थिक ताना-बाना को तोड़ रहे थे। अतः यह मुख्य रूप से आत्मसक्षा कीं लड़ाई थी। बिरसा ने ‘स्वर्ण युग’ की बात कहीं जब मुण्डा लोग अपनी जमीन के मालिक थे। उसे समय आदिवासी समाज न केवल ब्रिटिश भारतीय अभिजात्य वर्ग के शोषण से भी मुक्त था।

इसे भी जानें : चीन का डेटिंग फेस्टिवल (Qixi Festival) : माता-पिता इस अवसर को सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से स्वीकार करते हैं

हॉलाकि इस आन्दोलन को पूरी शक्ति के साथ दबा दिया गया लेकिन इसने उपनिवेशिक साम्राज्य को अपनी आर्थिक नीति के बारे में समीक्षा करने पर मजबूर कर दिया। अब प्रशासन को पूरी आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था में सुधार की जरूरत का एहसास हो चुका था। छोटा नागपुर टेनेन्सी एक्ट को हम इस नई सोच के परिणाम के रूप में देख सकते हैं। एफसी0 मित्तल इस आन्दोलन का विश्लेषण करते हुए कहते हैं कि इस आन्दोलन का बुनियादी कारण कृषिगत, इस्तेमाल किया गया तरीका हिंसात्मक तथा अन्त राजनीतिक रूप में होता है। बिरसा ने कृषिगत समस्याओं पर बल दिया तथा इसे हल करने के लिए राजनैतिक तरीका अपनाने की बात की। राजनैतिक हल के विचार से तात्पर्य मुण्डा साम्राज्य स्थापित करना तथा स्वयं उस साम्राज्य का राजा बनना था। अतः हम कह सकते हैं कि आन्दोलन जिसकी शुरूआत पुनरूस्थानवादी तथा धार्मिक आन्दोलन के रूप नें हुई कुछ ही समय में राजनैतिक आन्दोलन का रूप ले लेता हैं।

इस आन्दोलन के प्रभाव को छोटा नागपुर के आदिवासियों के बीच बढ़ रही राजनैतिक चेतना के रूप में भी देखा जा सकता है। दबे-कुचले आदिवासी समाज के लोग बिरसा को अपनी प्रेरणा के स्त्रोत को रूप में देखने लगे। छोटानागपुर क्षेत्र में शुरू होने वाले ताना भगत आन्दोलन पर हम बहुत स्पष्ट ढंग से बिरसा आन्दोलन का प्रभाव देख सकते हैं। ताना भगत आन्दोलन के गीत में बिरसा की विरासत का जिक्र है।

  • ताना भगत आन्दोलन

    ताना भगत आन्दोलन जिसकी शुरूआत 1914 में हुईं, आदिवासी राजनीति को इसने एक नया स्वरूप प्रदान किया। इसकी प्रकृति को लेकर विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ इतिहासकार ताना भगत आंदोलन को धार्मिक आन्दोलन के रूप में देखता है तो वहीं कुछ विद्वान इसके राजनीतिक पहलु पर बल देते हैं। आन्दोलन के राजनैतिक स्वरूप को लेकर एक जो बड़ी बहस है वह यह है कि विद्वानों का एक बड़ा हिस्सा इस तथ्य से सहमति रखता है कि ताना भगत शायद पहला ऐसा आदिवासी आन्दोलन है जो राष्ट्रीय आन्दोलन की राजनीति के राष्ट्रीय स्वरूप पर बल देते हुए इसे राष्ट्रीय आन्दोलन का हिस्से के रूप में देखते हैं, परन्तु जब हम इस आन्दोलन से संबधित स्त्रोतों पर नजर डालें तब इस तरह के इतिहास लेखन पर निःसंदेह प्रश्न चिन्ह लग जाता है।

    सबसे पहली बात की ताना-भगत आन्दोलन का स्वरूप धार्मिक नहीं शुद्ध रूप में राजनीति था और यह बात उनके मंत्र तथा कविताओं से पता चलती है। घर्म का इस्तेमाल केवल आदिवासी समाज के उरौंव समुदाय को एकजुट करने के लिए था। इस आन्दोलन की शुरूआत जातरा उरॉंव ने 1914 में की थी कुछ नेताओं के साथ मिलकर राष्ट्रीय आन्दोलन का हिस्सा बन जाते हैं। ताना भगत आन्दोलन का ‘राष्ट्रीयकरण’ बहुत महत्वपूर्ण है, बावजुद इस तथ्य के कि उरॉव समाज का एक छोटा हिस्सा ही इससे जुड़ता हैं। यह ध्यान देने वाली बात है कि इस क्षेत्र में गाँधी की यात्रा से पूर्व ही ताना भगत अंग्रेजी कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर काम कर रहे थे। अतः हम कह सकते हैं कि गाँधी ने उन्हें आकर्षित नहीं किया बल्कि लम्बे समय से वे जो ‘उपनिवेशवादी शोषण का सामना कर रहे थे उसके विरोध में वह भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन का हिस्सा बने। उन्हें मुख्य रूप से क्षेत्रीय अथवा स्थानीय कांग्रेसी नेताओं के वादे ने आकर्षित किया जिसमें कहा गया था कि अगर ब्रिटिश शासन का अन्त हो जाएगा तो आदिवासी समाज के लोग जमींदारी शोषण से मुक्त हो जाएँगे, क्योंकि ब्रिटिश शोषण के संरक्षण के कारण जमींदार इतने शक्तिशाली बन गए हैं। अर्थात्‌ जमींदारों की शक्ति का मुख्य स्त्रोत ब्रिटिश राज ही है। कांग्रेसी कार्यकर्ता आदिवासियों को मुख्य रूप से ताना भगत आन्दोलन से जुड़े आदिवासियों को यह समझाने में सफल हुए कि ब्रिटिश शासन के पतन का अर्थ जमींदारी शोषण का
    अन्त है।

  • भील आन्दोलन

    भील जनजाति के लोग मुण्डा, संथाल तथा उराँव से अलग एक बड़े भू-भाग में बिखरे हुए थे। भील मुख्यतः चार प्रदेशों (छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा गुजरात) के अलग-अलग हिस्सों में रहते हैं,  शायद यही कारण है कि उनका आन्दोलन मुण्डा, उरौंव या संथाल जैसे आदिवासी आन्दोलनों की तरह विद्रोह में नहीं बदल पाया। भील समाज के आदिवासियों पर हिन्दू धर्म का प्रभाव बहुत स्पष्ट है। 19वीं सदी के अंतिम दशक में लसोदिया ने भील जनजाति के बीच सुधार आन्दोलन की शुरूआत की। उसके प्रभाव में भील जनजाति की एक बड़ी आबादी ने मदिरा-मांस को त्याग दिया। भील जनजाति के बीच एक आन्दोलन की शुरूआत गोविंदगीरी ने की। इसे हम नाथपंथी आन्दोलन के रूप में भी जानते हैं। भील समाज में अपनी बढ़ती लोकप्रियता को देखकर उन्होंने स्वयं को राजस्थान के डुन्गरपुर जिले का राजा घोषित कर दिया और भील जनजाति के लोगों द्वारा गठित एक सेना तैयार कर ली। उनकी इस राजनैतिक महत्वकांक्षा से भयभीत होकर सुन्त-रामपुर के राजा ने अंग्रेजों के साथ मिलकर नाथपंथी सेना पर आक्रमण कर दिया।  इस युद्ध में भील सेना बुरी तरह पराजित हुई तथा गोविंदगीरी को उनके अनुयायियों के साथ गिरफ्तार कर लिया जाता है। यद्यपि इस युद्ध ने नाथपंथी आन्दोलन की राजनैतिक महत्वकांक्षा पर विराम लगा दिया लेकिन सामाजिक-धार्मिक पहचान के रूप में यह संप्रदाय डुन्गरपुर क्षेत्र में मौजूद है।

इसे भी जानें : शोध (Research) कहता है जन्म से तय नहीं होती किस्मत

  • मोपला विद्रोह

इस विद्रोह की प्रकृति को लेकर विद्वानों में आपसी बहस है,  कुछ झतिहासकार इस विद्रोह की मिट्टी के साप्रदायिकता के बीज ढूंढने की कोशिश करते हैं तो कुछ का मानना हैं कि यह वर्गसंघर्ष था न कि सांप्रदायिक विद्रोह । इस विद्रोह को सांप्रदायिकता के चश्मे से देखने का मुख्य कारण यह है कि इसमें भाग लेने वाली ज्यादातर जनता मुसलमान थी, नेतृत्व कुछ उलेमाओं के हाथ में था, मस्जिद लामबंदी के केंद के रूप में उमरे लथा हमले का शिकार मुख्य रूप से हिन्दू जमींदार थे। अगर सतहीं तौर पर देखें तो निसंदेह यह आन्दोलन एक साम्प्रदायिक आन्दोलन लगता है जिसमें भाग लेने वाली जनता मुसलमान तथा जिस पर हमला किया जा रहा है वे हिन्दू थे। परन्तु अगर हम इस विद्रोह का बारीकी से अध्ययन करें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि यह कोई सांप्रदायिक विद्रोह नहीं बल्कि वर्ग संघर्ष था। उस क्षेत्र में ज्यादातर किसान मुसलमान का हिन्दू के खिलाफ विद्रोह नहीं बल्कि गरीब शोषित वर्ग के मुसलमानों का हिन्दू जमींदारों तथा उसे संरक्षण देने वाली ब्रिटिश सत्ता के विरूद्ध विद्रोह था।

इस आन्दोलन की शुरूआत 1840 के दशक में केरल के मालाबार क्षेत्र में होती है। मोपला मुख्य रूप से अरब व्यापारियों के वंशज थे जो एक लम्बे समय से उस क्षेत्र में जाकर बस गए थे। गा में जब ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेना ने टीपू को पराजित कर मालाबार को अपने कब्जे में ले लिया तब से उस क्षेत्र के आर्थिक तथा सामाजिक संबंधों में टकराव शुरू हो गया। अपनी विजय के बाद कम्पनी ने जन्मीज, जो उच्च हिन्दू जाति के थे, को जमींदार घोषित कर जमीन पर पूर्ण स्वामित्व का अधिकार प्रदान कर दिया। इससे पहले कि स्थिति यह थी कि उपज़ का आधा हिस्सा जमींदार के पास जाता था तथा आधा हिस्सा कृषक के पास। परन्तु नई राजस्व नीति ने क्षेत्र में भूमि संब्ध को बदल कर रख दिया। अब अगर किसान समय पर लगान न दें तो जमीदार को यह अधिकार हैं कि वह उसे जमीन से बेदखल कर सकता है। ऐसी परिस्थिति ने किसानों के पास विद्रोह के अलावा और कोई रास्ता नहीं छोड़ा। अपने आपको जमींदार तथा ब्रिटिश गठजोड़ से मुक्त करने के लिए किसानों ने कुछ मुस्लिम नेतृत्व स्वीकार कर विद्रोह का बिगुल बजा दिया। इस  विद्रोह का नेतृत्व मुख्य रूप से स्यद अलबी थंगल, उमर काजी तथा सनाउत्लाह थंगल के पास था। इन नेताओं ने आर्थिक शोषण को धार्मिक चेतना के साथ जोड़कर विदोहं को एक नया धार प्रदान किया। यद्यपि ब्रिटिश सत्ता ने अपने आधुनिक शक्तिशाली सेना के बल पर विद्रोह को कुचल दिया, परलु किसान आंदोलन की प्रकृति को एक नया स्वरूप प्रदान किया। हमें ध्यान देना होगा कि गरीब मोपला के हमले का केंद्र हिन्दू जमींदार तथा शोषण व्यवस्था थी न कि आम गरीब हिन्दू । अतः इस आन्दोलन को वर्ग संघर्ष के रूप में देखा जाना चाहिए न कि सांप्रदायिक विद्रोह के रूप में। दूसरे मोपला आन्दोलन की शुरूआत 1909 में तुर्की के खलीफा के सवाल को लेकर होती हैं। इसका नेतृत्व अली मुसालियार ने किया परन्तु जल्द ही यह आन्दोलन हिंसात्मक विद्रोह के रूप में बदल जाता है। इस बार भी इसके हमले को कदर हिंदू-जमीदार तथा ब्रिटिश अधिकारी थे। 1921  के अंत तक सेना के  बल पर इस विद्रोह को भी पूरी तरह से दबा दिया जाता है।

किसी भी आन्दोलन को उसके सही रूप में समझने के लिए जरूरी है कि उसके चरित्र या उसकी प्रकृति का अध्ययन किया जाए। उपर्युक्त आन्दोलनों के अध्ययन से यह साफ हो जाता है। कि शोषित वर्ग के आन्दोलन का मूल कारण धार्मिक तथा जातीय नहीं बल्कि आर्थिक था। धार्मिक तथा जातीय पहचान ने शोषित वर्ग को शोषक वर्ग के विरूद्ध लामबंद किया। अतः हम कह सकते हैं कि यह एक प्रकार का वर्ग संघर्ष था।  इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि इन आन्दोलनों को हम उपनिवेशवाद-विरोधी आन्दोलन के रूप में तो देख सकते हैं परन्तु राष्ट्रवादी आन्दोलन के रूप में इनका अध्ययन करना एक एतिहासिक भूल होगी । केवल ब्रिटिश सत्ता के विरूद्ध विद्रोह को हम राष्ट्रवाद के साथ नहीं जोड़ सकते। सभी आन्दोलनों के स्थानीय कारण थे और आन्दोलनकारियों का हमला मुख्य रूप से जमींदारों तथा महाजनों के विरूद्ध था। ब्रिटिश सत्ता पर हमले का मुख्य कारण यह था कि उसने इन शोषक वर्ग को संरक्षण प्रदान किया हुआ था। ब्रिटिश राज अधिकतर स्थानों पर जमींदारों तथा महाजनों के माध्यम से ही अपने आर्थिक हितों की पूर्ति में लगा हुआ था।
शायद इसलिए ज्यादातर स्थानों पर कमजोर वर्ग के गुस्से का शिकार महाजन तथा जमींदार ही बने न कि अंग्रेजी हुकूमत । अतः हम कह सकते हैं कि ये आन्दोलन उपनिवेशवाद-विरोधी थे न कि राष्ट्रवादी ।

Follow us on Google News Follow us on WhatsApp Channel
Mamta Negi
Mamta Negihttps://chaiprcharcha.in/
Mamta Negi चाय पर चर्चा" न्यूज़ पोर्टल के लिए एक मूल्यवान सदस्य हैं। उनका विभिन्न विषयों का ज्ञान, और पाठकों के साथ जुड़ने की क्षमता उन्हें एक विश्वसनीय और जानकारीपूर्ण समाचार स्रोत बनाती है।

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

50FansLike
21FollowersFollow
7FollowersFollow
62SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles