आज हम एक ऐसे कवि के बारे जानेंगे जो मात्र 28 साल की उम्र मे इस दुनिया को छोड़कर चले गए थे। जिन्होंने हिंदी साहित्य मे “छायावाद” से लेकर “प्रयोगवाद” तक काव्य सृजन कर हिंदी साहित्य मे बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान दिया। ‘प्रकृति का चितेरा कवि’ ‘मातृभाषा का महान कवि’ और ‘हिमवंत का एक कवि’ आदि नाम से जिन्हें जाना जाता है हम बात कर रहे हैं चंद्रकुँवर बर्त्वाल की।
चंद्रकुँवर बर्त्वाल की संक्षिप्त जीवनी
उत्तराखंड के एक महान कवि जिन्हें बहुत कम लोग ही जानते हैं,वह हैं चंद्रकुँवर बर्त्वाल। चंद्रकुँवर बर्त्वाल का जन्म उत्तराखंड मे गढ़वाल मण्डल के चमोली जनपद के मालकोटी गाँव,तल्ला नागपुर (वर्तमान रुद्रप्रयाग में स्थित) मे 20 अगस्त 1919 को हुआ था। इनकी माता जी का नाम जानकी देवी एवं पिताजी का नाम भूपाल सिंह बर्त्वाल था।
इनका मूल नाम कुंवर सिंह बर्त्वाल था। इन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा पौड़ी से एवं इंटरमीडिएट की परीक्षा देहरादून से उत्तीर्ण की। लखनऊ विश्वविद्यालय से यह एम. ए. कर रहे थे और इस दौरान ये क्षय रोग से ग्रस्त हो गए और इनका अध्ययन छूट गया। 14 सितंबर 1947 को मंदाकिनी और कांचनगंगा के तट पर उनके पैतृक गांव में मात्र 28 वर्ष 24 दिन की अल्प आयु मे इन महान कवि का निधन हो गया।
हिंदी के जाने-माने साहित्यकार यशपाल जी को भेजा गया संदेश
प्रिय यशपाल जी,
“अत्यंत शोक है कि मैं मृत्युशैया पर पड़ा हुआ हूँ और बीस-पच्चीस दिन अधिक-से-अधिक बचा रहूँगा ; सुबह को एक-दो घंटे बिस्तर से मैं उठ सकता हूँ और इधर-उधर अस्त-व्यस्त पड़ी कविताओं को एक कापी पर लिखने की कोशिश करता हूँ। बीस-पच्चीस दिनों में जितना लिख पाऊँगा, आपके पास भेज दूँगा।”
इनका जीवनकाल मात्र 28 वर्ष 24 दिन का रहा।“मातृभाषा के इस महान कवि को अपनी मृत्यु का पता पहले ही हो गया था। जिसका जिक्र इन्होंने अपनी कविताओं में भी किया है।”
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चंद्रकुँवर बर्त्वाल जी की एक प्रसिद्ध कविता – मुझको पहाड़ ही प्यारे हैं
मुझको पहाड़ ही प्यारे है
प्यारे समुंद्र मैदान जिन्हें
नित रहे उन्हें वही प्यारे
मुझ को हिम से भरे हुए
अपने पहाड़ ही प्यारे है
पावों पर बहती हैं नदिया
करती सुतीक्ष्ण गर्जन ध्वनिया
माथे के ऊपर चमक रहे
नभ के चमकीले तारे है
आते जब प्रिय मधु ऋतु के दिन
गलने लगता सब और तुहिन
उज्ज्वल आशा से भर आते
तब क्रशतन झरने सारे है
छहों में होता है कुंजन
शाखाओ में मधुरिम गुंजन
आँखों में आगे वनश्री के
खुलते पट न्यारे न्यारे है
छोटे छोटे खेत और
आडू -सेबो के बागीचे
देवदार-वन जो नभ तक
अपना छवि जाल पसारे है
मुझको तो हिम से भरे हुए
अपने पहाड़ ही प्यारे है
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उनकी कुछ प्रमुख कविताएं
मैकाले के खिलौने, नवयुग, काफल पक्कू,बांस का लट्ठ,वह लौट न आई, राम नाम की गोलियाँ, आकाश, जीतू,नृत्य जातक,पुण्य स्नान,मेरा घर आदि।
“मैकाले के खिलौने” कविता के माध्यम से अंग्रेजो की जी हुजूरी करने वाले रूढ़िग्रस्त समाज पर तीखा व्यंग्य किया है
मेड इन जापान खिलौनों से,
सस्ते हैं लार्ड मैकाले के ।
ये नये खिलौने, इन को लो,
पैसे के सौ-सौ, दो-दो सौ ।।
अँग्रेज़ी ख़ूब बोलते ये,
सिगरेट भी अच्छी पीते हैं ।
हो सकते हैं सौ से दो सौ,
ये नये खिलौने मैकाले के ।।
ये सदा रहेंगे बन सेवक,
हर रोज़ करें झुककर सलाम ।
हैं कहीं नहीं भी दुनिया में,
मिलते इतने क़ाबिल गुलाम।।
तब तक यह घटने के बजाय
हो जायेंगे करोडों-लाखों ।
ये सस्ते हैं इन्हें ले लो
पैसे के सौ-सौ, दो-दो सौ ।
ऐसे महान कवि को हमारा शत शत नमन है। ऐसे कवियों की जीवनी और कविताओं को हमको पढ़ना चाहिए और जानना चाहिए।
अति सुंदर रोचक जानकारी के लिए धन्यवाद
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Bahut badhiya 😊🤗👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻