कोट भ्रामरी मंदिर क्षेत्रवासियों की अगाध श्रद्धा का केंद्र है। यह कत्यूर घाटी की कुल देवी मानी जाती है। गरुड़ से तीन किमी की दूरी पर ऊंचाई में कोट मंदिर स्थित है। इसे रणचूला कोट भी कहते हैं। यह कत्यूर घाटी के मध्य में टाप में स्थित है। यहां से कत्यूर घाटी का सौंदर्य देखते ही बनता है। इतिहास ऐतिहासिक व पौराणिक कोट मंदिर में मां की पूजा शक्ति रूप में की जाती है। जब कत्यूरी राजा बासंतिदेव और आसंतिदेव कत्यूर में अपनी राजधानी पहुंचे तो यहां पहले से ही अरुण नामक दैत्य भूमिगत राजधानी बनाकर बैठा था। अरुण दैत्य ने बेहद आतंक मचाया था। तब इन दोनों राजाओं का अरुण दैत्य से भयंकर युद्ध हो गया। पराजित राजाओं ने मां जगदंबा की आराधना की। तब उन्हें मुक्ति मिली और उन्होंने कत्यूर को अपनी राजधानी बनाया।आपको बता दे कि कोट भ्रामरी मंदिर, जिसे भ्रामरी देवी मंदिर और कोटे-के-माई के नाम से भी जाना जाता है, कौसानी से 18 किमी दूर एक पहाड़ी की चोटी पर स्थित है। इसकी सबसे प्रमुख विशेषता इसकी मुख्य देवी देवी भ्रामरी है, जो उत्तर की ओर मुख किये हुए है। भक्त मंदिर के दक्षिणी छोर से पूजा-अर्चना करते हैं।
मंदिर की स्थापना भी एक रहस्य
स्थानीय लोक मान्यताओं के अनुसार, कत्यूरी राजाओं की कुलदेवी भ्रामरी और चंद राजाओं की नंदा देवी हैं. मंदिर में भ्रामरी रूप में देवी की पूजा की जाती है. भ्रामरी रूप में मां दुर्गा मूर्ति के रूप में नहीं, बल्कि मूल शक्ति के रूप में हैं. एक समय चंद शासक नंदा की शिला लेकर गढ़वाल से अल्मोड़ा निकले, तो रात में विश्राम के लिए यहां रुके. अगले दिन सेवकों ने शिला उठानी चाही, लेकिन वह उनसे हिल तक न सकी. सभी हताश निराश होकर बैठ गए. तब किसी ने राजा को सलाह दी कि देवी का मन इस स्थान पर रम गया है, वह यहीं रहना चाहती हैं. आप इसकी यहीं पर स्थापना कर दें. तब वहीं पर उसकी प्रतिष्ठा करवा दी गई।
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मां भ्रामरी देवी के साथ पौराणिक दैत्य अरुण राक्षस एवं शुंभ-निशुंभ के संहार करने की कथा जुड़ी है। इस संबंध में कहा जाता है कि इस घाटी में विशाल जलाशय था जिससे होकर अरुण नामक राक्षस इस जलाशय के भीतर से अपने राज्य में प्रवेश करता था। बताते हैं कि वह राक्षस बहुत ही बलशाली व खूंखार प्रकृति का था। उसे वरदान था कि वह न तो किसी देवता न ही किसी मनुष्य न ही किसी शस्त्र से मारा जा सकता था। इस वरदान के पाते ही उसके अहंकार व अत्याचार का बीज पनपने लगा तथा उसके संताप से तीनों लोक हाहाकार मय हो उठे। त्रस्त देवताओं व मनुष्यों ने भगवान शिव की आराधना की। शिव इच्छा से आकाशवाणी हुई कि इस महा दैत्य के संहार के लिए वैष्णवी का अवतरण होगा। वही अरुण नामक महादैत्य का बध करेगी। तत्पश्चात आकाशवाणी सत्य सिद्ध हुई। महामाया जगत जननी के अलौकिक प्रताप से समूचा आकाशमंडल बड़े-बड़े भ्रमरों से गुंजायमान होकर डोल उठा। यही बड़े-बड़े भ्रामर जलाशय मार्ग से होते हुए अरुण नामक महादैत्य के राजमहल में जा पहुंचे तथा अपने विष भरे दंशों से उस पर प्रहार करने लगे। भगवती के इसी भ्रामरी रूप से अरुण नामक महा दैत्य का अन्त किया तथा सभी प्राणियों को इस आततायी के आंतक से मुक्त कराया। तभी से इस महाशक्ति को भ्रामरी नाम दिया गया। यह शक्तिपीठ यंत्र के ऊपर पूर्ण विधि विधान से स्थापित है।
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