रुद्रप्रयाग: उत्तराखंड के पंचकेदारों में तृतीय केदार भगवान तुंगनाथ मंदिर के कपाट गुरुवार को विधिविधान के साथ शीतकाल के लिए बंद कर दिए गए। बर्फ की हल्की फुहारों और शंखध्वनि के बीच जब मुख्य द्वार पर पूजा-अर्चना हुई, तो पूरा वातावरण भक्तिमय हो उठा। इस मौके पर सैकड़ों श्रद्धालु और स्थानीय पुजारी समुदाय मौजूद रहे, जिन्होंने भगवान तुंगनाथ के जयकारों से समूचा क्षेत्र गुंजा दिया।समुद्र तल से करीब 12,073 फीट की ऊंचाई पर स्थित तुंगनाथ मंदिर विश्व का सबसे ऊंचा शिव मंदिर माना जाता है। भगवान शिव के पंचकेदारों में यह तीसरा केदार है, जिसकी धार्मिक मान्यता महाभारत काल से जुड़ी मानी गई है। कहा जाता है कि पांडवों को जब अपने कर्मों से मुक्ति पाने की इच्छा हुई, तो उन्होंने भगवान शिव की खोज हिमालय के इन धामों में की। इसी कथा से पंचकेदारों की परंपरा जुड़ी — केदारनाथ, तुंगनाथ, रुद्रनाथ, मध्यमहेश्वर और कल्पेश्वर।इस वर्ष मई में कपाट खुलने के बाद से अब तक करीब डेढ़ लाख श्रद्धालुओं ने तुंगनाथ के दर्शन किए। यह संख्या पिछले वर्षों की तुलना में अधिक रही, जिससे स्पष्ट है कि प्रदेश में धार्मिक पर्यटन लगातार बढ़ रहा है।
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चारधाम यात्रा के साथ-साथ पंचकेदार यात्रा का महत्व भी तीर्थयात्रियों में बढ़ता जा रहा है।कपाटबंदी की प्रक्रिया हर वर्ष की तरह इस बार भी परंपरागत रीति से संपन्न हुई। सुबह विशेष पूजा, भोग और आरती के बाद भगवान तुंगनाथ की गद्दी को श्रद्धाभाव से मक्कू गांव स्थित शीतकालीन गद्दीस्थल, जहां भगवान की प्रतिमा पूजी जाएगी, के लिए रवाना किया गया। ग्रामीणों और यात्रियों ने यात्रा मार्ग पर फूल वर्षा कर भगवान तुंगनाथ की डोली का स्वागत किया।शीतकाल के अगले छह महीनों तक तुंगनाथ में पूजा-अर्चना नहीं होगी, क्योंकि यह क्षेत्र बर्फ की मोटी परत से ढक जाता है। नवंबर से मई तक का समय यहां बेहद ठंडा रहता है, जिसके दौरान स्थानीय लोग भी निचले इलाकों की ओर चले जाते हैं। इसी कारण भगवान की पूजा मक्कू गांव में संपन्न की जाती है, जिससे आस्था की ज्योति सर्द मौसम में भी प्रज्वलित बनी रहती है।पर्यटन विभाग के अनुसार, इस यात्रा सत्र में तुंगनाथ क्षेत्र ने स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी मजबूती दी है।
होटल, होमस्टे, घोड़े-खच्चरों के परिवहन और स्थानीय उत्पादों की बिक्री में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। साथ ही, बढ़ती पर्यटक संख्या के चलते क्षेत्र में बुनियादी ढांचे को सुधारने की योजनाएं भी सरकार द्वारा गति दी जा रही हैं।कपाट बंद होने के बाद अब पूरा क्षेत्र शांत हो गया है, लेकिन भक्तों की आस्था अब भी अडिग है। हर साल की तरह, श्रद्धालु अगले वर्ष कपाट खुलने का इंतजार करेंगे जब फिर से हिमालय की गोद में जय भोले की गूंज सुनाई देगी। यह वार्षिक प्रक्रिया न केवल धार्मिक विधि है, बल्कि यह देवभूमि उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर और प्रकृति से सामंजस्य का अद्भुत उदाहरण भी है।
