द्वाराहाट: द्वाराहाट में ऐतिहासिक एवं पौराणिक स्याल्दे-बिखोती मेले का रविवार को विमाण्डेश्वर मंदिर में रंगारंग एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ शुभारंभ हुआ। क्षेत्रीय विधायक मदन सिंह बिष्ट ने दीप जलाकर बिखोती मेले का शुभारंभ किया। उन्होंने कहा कि मेले हमारी सांस्कृतिक विरासत से रूबरू कराते हैं। वही आपको बता दें कि अल्मोड़ा जनपद के द्वाराहाट कस्बे में सम्पन्न होने वाला स्याल्दे बिखौती का प्रसिद्ध मेला प्रतिवर्ष वैशाख माह में सम्पन्न होता है।
हिन्दू नव संवत्सर की शुरुआत ही के इस मेले की भी शुरुआत होती है जो चैत्र मास की अन्तिम तिथि से शुरु होता है। यह मेला द्वाराहाट से आठ कि.मी. दूर प्रसिद्ध शिव मंदिर विभाण्डेश्वर में लगता है। मेला दो भागों में लगता है। पहला चैत्र मास की अन्तिम तिथि को विभाण्डेश्वर मंदिर में तथा दूसरा वैशाख माह की पहली तिथि को द्वाराहाट बाजार में। मेले की तैयारियाँ गाँव-गाँव में एक महीने पहले से शुरु हो जाती हैं।
चैत्र की फूलदेई संक्रान्ति से मेले के लिए वातावरण तैयार होना शुरु होता है। गाँव के प्रधान के घर में झोड़ों का गायन प्रारम्भ हो जाता है। बीते दिन चैत्र मास की अन्तिम रात्रि रविवार को महादेव नगरी को विभाण्डेश्वर में इस क्षेत्र के 16 धड़ों आल गरख क्षेत्र के लोग एकत्र हुए। सभी विभिन्न गाँवों के लोग अपने-अपने ध्वज नगाड़े निशानों महादेव नगरी में पहुंचे। उन्होंने स्याल्दे बिखोती का शानदार आगाज करते हुए झोड़ों का गायन शुरू किया।
मेले की परम्परा व इतिहास
इस मेले की परम्परा कितनी पुरानी है इसका निश्चित पता नहीं है । बताया जाता है कि शीतला देवी के मंदिर में प्राचीन समय से ही ग्रामवासी आते थे तथा देवी को श्रद्धा सुमन अर्पित करने के बाद अपने-अपने गाँवों को लौट जाया करते थे । लेकिन एक बार किसी कारण दो दलों में खूनी युद्ध हो गया। हारे हुए दल के सरदार का सिर खड्ग से काट कर जिस स्थान पर गाड़ा गया वहाँ एक पत्थर रखकर स्मृति चिन्ह बना दिया गया । इसी पत्थर को ओड़ा कहा जाता है । यह पत्थर द्वारहाट चौक में रखा आज भी देखा जा सकता है । अब यह परम्परा बन गयी है कि इस ओड़े पर चोट मार कर ही आगे बढ़ा जा सकता है । इस परम्परा को ‘ओड़ा भेटना’ कहा जाता है ।
पहले कभी यह मेला इतना विशाल था के अपने अपने दलों के चिन्ह लिए ग्रामवासियों को ओड़ा भेंटने के लिए दिन-दिन भर इन्तजार करना पड़ता था।सभी दल ढोल-नगाड़े और निषाण से सज्जित होकर आते थे। तुरही की हुँकार और ढोल पर चोट के साथ हर्षोंल्लास से ही टोलियाँ ओड़ा भेंटने की रस्म अदा करती थीं । लेकिन बाद में इसमें थोड़ा सुधारकर आल, गरख और नौज्यूला जैसे तीन भागों में सभी गाँवों को अलग-अलग विभाजित कर दिया गया । इन दलों के मेले में पहुँचने के क्रम और समय भी पूर्व निर्धारित होते हैं।
स्याल्दे बिखौती के दिन इन धड़ों की सजधज अलग ही होती है । हर दल अपने-अपने परम्परागत तरीके से आता है और रस्मों को पूरा करता है ।
- आल नामक धड़ में तल्ली-मल्ली मिरई, विजयपुर, पिनौली, तल्ली मल्लू किराली के कुल छ: गाँव है । इनका मुखिया मिरई गाँव का थौकदार हुआ करता है ।
- गरख नामक धड़ में सलना, बसेरा, असगौली, सिमलगाँव, बेदूली, पैठानी, कोटिला, गवाड़ तथा बूँगा आदि लगभग चालीस गाँव सम्मिलित हैं । इनका मुखिया सलना गाँव का थोकदार हुआ करता है ।
- नौज्यूला नामक तीसरा धड़ छतीना, बिदरपुर, बमनपुरु, सलालखोला, कौंला, इड़ा, बिठौली, कांडे, किरौलफाट आदि गाँव हैं । इनका मुखिया द्वाराहाट का होता है । मेले का पहला दिन बाट्पुजे – मार्ग की पूजा या नानस्याल्दे कहा जाता है । बाट्पुजे का काम प्रतिवर्ष नौज्यूला वाले ही करते हैं । वे ही देवी को निमंत्रण भी देते हैं ।
ओड़ा भेंटने का काम उपराह्म में शुरु होता है । गरख-नौज्यूला दल पुराने बाजार में से होकर आता है । जबकि आल वाला दल पुराने बाजार के बीच की एक तंग गली से होता हुआ मेले के वांछित स्थान पर पहुँचता है । लेकिन इस मेले का पारम्परिक रुप अभी भी मौजूद है । लोक नृत्य और लोक संगीत से यह मेला अभी भी सजा संवरा है । मेले में भगनौले जैसे लोकगीत भी अजब समां बाँध देते हैं । बाजार में ओड़ा भेंटने की र को देखने और स्थानीय नृत्य को देखने अब पर्यटक भी दूर-दूर से आने लगे हैं । इसके बाद ही मेले का समापन होता है ।
कभी यह मेला व्यापार की दृष्टि से भी समृद्ध था । परन्तु पहाड़ में सड़कों का जाल बिछने से व्यापारिक स्वरुप समाप्त प्राय: है । मेले में जलेबी का रसास्वादन करना भी एक परम्परा जैसी बन गयी है । मेले के दिन द्वाराहाट बाजार जलेबी से भरा रहता है ।
इस मेले की प्रमुख विशेषता है कि पहाड़ के अन्य मेलों की तरह इस मेले से सांस्कृतिक तत्व गायब नहीं होने लगे हैं। पारम्परिक मूल्यों का निरन्तर ह्रास के बावजूद यह मेला आज भी किसी तरह से अपनी गरिमा बनाये हुए है ।
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