रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया
इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो।
कैसे आकाश में सुराख़ हो नहीं सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।।
प्रेमी प्रेमिकाओं के प्यार भरे नगमे जिन गजलों की नीव हुआ करते थे। जो गजलें मयखानों की शामें रंगीन किया करती थी।जिन गजलों मे प्रेमिकाओं के जुल्फों की बातें कही जाती थी, वह गजलें अचानक से इंकलाब उगलती हुई चौक चौराहों तक पहुंच गई। उन गजलों की नींव को ही बदल कर रख दिया एक ऐसे कवि और गजल सम्राट दुष्यंत कुमार ने। दुष्यंत कुमार ने गजलों की परिभाषा ही बदल दी,उनकी गजलों ने आंदोलन को जन्म दिया।
ऐसे कवि दुष्यंत कुमार जी की पुण्यतिथि पर उन्हें शत-शत नमन।
दुष्यंत कुमार का गजल संग्रह “साए में धूप” केवल एक ग़ज़ल संग्रह नहीं था, यह 1975 मे आपातकाल के समय नौजवानों के लिए इंकलाब का उपनिषद बन गया। उस समय उनके इस गजल संग्रह “साए में धूप” की इस गजल ने हर जगह जोश भरने का काम किया।
हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज ये दीवार पर्दों की तरह हिलने लगी
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सड़क पर हर गली में हर नगर हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मिरा मक़्सद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।
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दुष्यंत कुमार का जीवन परिचय: क्रांति की ओर पहला कदम
दुष्यंत कुमार का जन्म 27 सितम्बर 1931 को उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के ग्राम राजपुर नवादा में हुआ था। उनके पिता का नाम भगवत सहाय और माता का नाम रामकिशोरी देवी था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा गाँव की ही पाठशाला मे हुई उसके बाद उन्होंने अपनी हाईस्कूल की परीक्षा नहटौर से और इंटरमीडिएट की परीक्षा चंदौसी से उत्तीर्ण की। उसके बाद वह इलाहबाद चले गए और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी०ए० और एम०ए० हिंदी किया।
दुष्यंत कुमार ने दसवीं कक्षा से ही कविता लेखन प्रारम्भ कर दिया था। वे मध्यप्रदेश के संस्कृति विभाग के अंतर्गत भाषा विभाग में भी रहे। सरकारी सेवा में कार्य करते हुए सरकार विरोधी कविताओं की रचना के कारण उन्हें सरकार के क्रोधित रवैये का भी सामना करना पड़ा।
प्रमुख कृतियाँ: कविता, नाटक, और उपन्यास में योगदान
(काव्य नाटक- “एक कंठ विषपायी”)
(नाटक- “मसीहा मर गया”)
काव्य संग्रह-“सूर्य का स्वागत, आवाज़ों के घेरे, जलते हुए वन का बसंत”
उपन्यास-“छोटे-छोटे सवाल, आँगन में एक वृक्ष, दुहरी जिंदगी”
ग़ज़ल संग्रह- “साये में धूप”
आपातकाल और दुष्यंत कुमार की कविता का प्रभाव
आपातकाल के समय उनका मन बहुत दुःखी और आक्रोशित हो गया था उन्होंने आपातकाल के समय यह गजल इंदिरा गांधी जी के लिए लिखी थी।
“एक गुड़िया की कई कठ-पुतलियों में जान है
आज शायर ये तमाशा देख कर हैरान है
ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए
ये हमारे वक़्त की सब से सही पहचान है
एक बूढ़ा आदमी है मुल्क में या यूँ कहो
इस अँधेरी कोठरी में एक रौशन-दान है
मस्लहत-आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम
तू न समझेगा सियासत तू अभी नादान है
कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए
मैं ने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है”
दुष्यंत कुमार की अमर रचनाएँ: कालजयी गज़लें और कविताएँ
- कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
यहाँ दरख़्तों के साए में धूप लगती है
चलें यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए
न हो क़मीज़ तो पाँव से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए
ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए
वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए
तिरा निज़ाम है सिल दे ज़बान-ए-शायर को
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए
जिएँ तो अपने बग़ैचा में गुल-मुहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुल-मुहर के लिए
2. तू किसी रेल सी गुजरती है
मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ
वो ग़ज़ल आप को सुनाता हूँ
एक जंगल है तेरी आँखों में
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ
तू किसी रेल सी गुज़रती है
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ
हर तरफ़ ए’तिराज़ होता है
मैं अगर रौशनी में आता हूँ
एक बाज़ू उखड़ गया जब से
और ज़ियादा वज़न उठाता हूँ
मैं तुझे भूलने की कोशिश में
आज कितने क़रीब पाता हूँ
कौन ये फ़ासला निभाएगा
मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ
दुष्यंत कुमार को श्रद्धांजलि
एक ऐसा कवि जिसकी जरूरत उस समय के भारत को सबसे अधिक थी,जो निम्न वर्ग की आवाज को अपनी गजलों के द्वारा उठाया करता था। जो सरकार पर अपनी कविताओं से सीधा प्रहार कर देता था। ऐसे उस महान कवि और गजलकार की मात्र 44 वर्ष की अल्पायु मे 30 दिसंबर 1975 को हृदयाघात से मृत्यु हो गई। आज उनकी पुण्यतिथि पर हम उन्हें नमन करते हैं।

