डॉलर का वर्चस्व: अब एक वैश्विक चिंता क्यों बन गया है?
1- दुनिया में डॉलर (Dollar) का रुतबा, जो गंभीर चिंता है।
2- मैन्युफैक्चरिंग को फिर से बढ़ावा देने और पुराने आइडिया को नया तड़का लगाकर वापस लाने का।
इन दो समस्याओं ने अमेरिका की नींद उड़ा रखी है, आइए जानें इनके बारे में विस्तार से :-
इसे नाम दिया गया है मार-ए-लागो अकॉर्ड (Mar-a-Lago Accord)। इसकी संभावनाओं को देखते हुए लगता है कि यह दुनिया में डॉलर (Dollar) का दबदबा खत्म भी कर सकता है। जैसा कि डोनाल्ड ट्रम्प की आर्थिक नीतियों ने दुनिया में उथल – पुथल मचा रखी है । इसका नतीजा कहीं ना कहीं डॉलर (Dollar)के अस्तित्व पर सवाल उठाता है। मजेदार बात यह है कि कोई नहीं चाहता कि डॉलर (Dollar)का ये रुतबा बरकरार रहे। दुनिया की बड़ी आर्थिक शक्तियां अमेरिका में पैदा हुई अनिश्चितताओं से डरी हुई हैं और वह डॉलर (Dollar) पर अपनी निर्भरता को खत्म करना चाहती हैं।
क्या दुनिया अब डॉलर (Dollar) को रिजर्व करंसी नहीं मानती?
यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद यह बहस शुरू हो गई थी लेकिन अब ये कहीं ज्यादा आगे बढ़ गई है। कई देशों को डॉलर (Dollar) को रिजर्व बनाए रखने व व्यापार करने में कई खतरे नजर आ रहे हैं। ट्रम्प के आर्थिक सलाहकार स्टीफन मीरान और उप राष्ट्रपति जेडी वेंस पहले से ही डॉलर को अमेरिका में मैन्यफैक्चरिंग की बढ़त के लिए खतरा बता चुके हैं । यानी दुनिया व अमेरिका दोनों मजबूत डॉलर के दुश्मन बने हुए हैं ।
डॉलर के दर्जे को कमजोर करने वाली बहस में एक सवाल यह है कि आने वाले कल में कौन सी करन्सी इसकी जगह लेगी ? इसे समझने से पहले डॉलर (Dollar) की खराब स्थिति के पीछे की वजह जान लेते हैं।
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डॉलर (Dollar) का इतिहास :
डॉलर बनाम मैन्युफैक्चरिंग: अमेरिका के सामने दोहरी चुनौती
ज्यादातर औद्योगिक कहानियों की तरह यह कहानी भी कारों से शुरू होती है। 1980 के दशक की अमेरिकी कारें। यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि बहुत से लोग जापानी या यूरोपीय कारों को अमेरिकी कारों से बेहतर मानते हैं । बात सिर्फ कार बनाने की नहीं दाम की भी है । उस वक्त अमेरिका ज्यादा जापानी और जर्मन कारें खरीद रहा था। वहीं जापान और जर्मनी बहुत कम आयात कर रहे थे। अमेरिका में बनी कारें विदेशी ग्राहकों के लिए महंगी थी । इससे उनकी बिक्री गिर रही थी ।
अमेरिका कार निर्माता सस्ते स्टील का आयात कर सकते थे लेकिन उनके लिए विदेशों में अपना माल बेचना महंगा था । अब अमेरिकी मैन्यफैक्चरिंग पर दबाव था की वो ज्यादा प्रतिस्पर्धी बने ताकि अमेरिका को दरकिनार ना किया जा सके । इसलिए 1985 में प0 जर्मनी, फ़्रांस,अमेरिका, ब्रिटेन और जापान के वित्तमंत्रियों ने मिलकर निर्माण और डॉलर (Dollar) की स्थिति में बदलाव किया।
इस समझौते पर बातचीत न्यूयॉर्क के प्लाज़ा होटल में हुई थी, जिसे संयोगवश तीन साल बाद डोनाल्ड ट्रम्प ने खरीद लिया। हालांकि अभी वे इसके मालिक नहीं हैं। प्लाज़ा अकॉर्ड का मकसद था डॉलर (Dollar) को कमजोर करना और ये खेल खेला जाता है विदेशी मुद्रा बाजार के मंच प। ये अनोखे बाजार हैं, यहाँ पैसे को पैसे से खरीदा जाता है। यानी किसी करन्सी की कीमत हमेशा दूसरी करन्सी में बताई जा सकती है और कई वजहें होती हैं जिनके चलते किसी करन्सी की कीमत घटती और बढ़ती है।
मसलन अगर बहुत ज्यादा लोग अमेरिका से सामान या सेवाएँ खरीदना चाहें तो आपको पेमेंट के लिए बहुत से डॉलर चाहिए होंगे। इससे डॉलर (Dollar) की कीमतें बढ़ जाएगी । लेकिन बात इतनी ही नहीं है दुनिया भर में तेल का कारोबार डॉलर में होता है। अब भी दुनिया के वित्तीय बाजार इसे कान्ट्रैक्ट का आधार मानते हैं। कई जगहों पर लोग और कारोबार किसी अन्य मुद्रा के बजाय डॉलर (Dollar) पर ज्यादा भरोसा करते हैं, इससे डॉलर की डिमांड बढ़ती है जिससे दाम बढ़ते हैं ।
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कैसे कमजोर किया गया था डॉलर: ‘प्लाज़ा अकॉर्ड’ की रणनीति
प्लाज़ा अकॉर्ड (Plaza Accord) के बाद ये हुआ कि केन्द्रीय बैंक खुद खिलाड़ी बन गए। उनके पास विदेशी मुद्रा भंडार थे । इसलिए जर्मनी और विदेशी मुद्रा बाजारों ने डॉलर (Dollar) बेचने शुरू कर दिए और फिर अमेरिका ने उल्टा किया। उसने जर्मन मार्क और जापानी येन खरीदे। एक ही वक्त पर जब बहुत ज्यादा डॉलर (Dollar) बेचे गए तो बाजार ने भी उन्हे बेचना शुरू किया। इससे डॉलर के दाम नीचे आ गए।
2014 से डॉलर (Dollar) की कीमतें बहुत तेजी से बढ़ी । डोनाल्ड ट्रम्प डॉलर की कीमतों के बारे में कई बार बोल चुके हैं। खासकर जापानी येन और चीनी युआन जैसी करन्सी के मुकाबले डॉलर के दाम में भारी अंतर उनकी अहम चिंता रही है।
‘मार-ए-लागो अकॉर्ड’ की गूंज: ट्रम्प की नीतियों का नया मोड़?
आज भी वैश्विक बाजार में आधे से ज्यादा बिल डॉलर में बनते हैं। डॉलर(Dollar) अभी भी अहम है। मार- ए -लागो अकॉर्ड इसी का फायदा उठाना चाहता है। प्लाज़ा अकॉर्ड जैसा ही ये नाम डोनाल्ड ट्रम्प के गोल्फ कोर्स रिज़ॉर्ट पर रखा गया। स्टीफन मीरान ने नवंबर 2024 में इसे पेपर में छापा था और वे अब ट्रम्प के आर्थिक सलाहकार हैं। ट्रम्प प्रशासन् ने अपने शुरुआती दौर में जिस तरह से अपनी नीतियों को लागू किया है कुछ लोग इसी पेपर की ओर इशारा कर रहे हैं। और वे कोशिश कर रहे हैं कि ट्रम्प प्रशासन के कदमों को इस पेपर की रोशनी में समझा सकें।
इसके पहले हिस्से में सुझाया गया है कि अमेरिका अन्य देशों को टैरिफ और सैन्य सुरक्षा वापस लेने का डर दिखाए ताकि वे डॉलर (Dollar) की कीमतें गिराने में अमेरिका की मदद करें। आर्थिक नीति पर साथ पाने के लिए अमेरिका का सुरक्षा कवच खींच लेने की धमकी देना, विदेश नीति का बहुत बड़ा बदलाव है। हालांकि अमेरिका के वरिष्ठ अधिकारी पहले अमेरिका द्वारा दुनिया के कई देशों को मुफ़्त सहायता देने पर सवाल उठा चुके हैं। जब से ट्रम्प राष्ट्रपति बने हैं, डॉलर गिरता ही जा रहा है। यह उनकी व्यापार नीतियों के चलते है। जिससे निवेशक; अमेरिका में अपना विश्वास खो रहे हैं।
बॉन्ड मार्केट की राजनीति: कौन डरता है कर्ज से?
स्टीव मीरान के आइडिया में एक और चिंता जाहिर की गई है। सरकारें कर्ज लेती हैं सैन्य, शिक्षा व स्वास्थ्य से जुड़े खर्चों के लिए। इस पर अमेरिका बॉन्ड जारी करता है। जिन्हें लोग, निवेशक व बैंक खरीदते हैं। उधारी देने वाले ये लोग / संस्थाएँ सरकार को कर्ज देती हैं। जैसे मान लीजिए आपने कुछ कर्ज लिया 10 सालों के लिए, इन 10 सालों में उन्हें ब्याज मिलता रहता है और तय समय के बाद मूल रकम भी मिल जाती है।
सरकार हर साल इसी तरह 2 ट्रिलियन डॉलर का कर्ज लेती है लेकिन 2021 के बाद से कर्ज देने वालों को अमेरिका सरकार की ओर से दिया जा रहा ब्याज बहुत ज्यादा बढ़ है। महंगाई पर लगाम लगाने के लिए अमेरिका के केन्द्रीय बैंक का ब्याज दरों को बढ़ाना भी इसकी वजह रहा है ।
मार- ए- लागो अकॉर्ड का दूसरा हिस्सा अमेरिका को सस्ते में कर्ज दिलाने से जुड़ा है । इसके हिसाब से उन देशों पर दबाव डाला जाएगा, जिनके पास पहले से अमेरिकी बॉन्ड हैं। प्लान है कि ऐसे देशों के पुराने बॉन्डस को समझौता कर के नए बॉन्ड्स में बदल दिया जाएगा। ये नए बॉन्ड्स ऐसे होंगे जिनमे मूलधन का भुगतान 100 साल बाद किया जाएगा और इस दौरान बॉन्ड्स पर या तो बिल्कुल भी ब्याज नहीं दिया जाएगा या बहुत कम ब्याज दिया जाएगा। अभी तक ये योजनाएं आधिकारिक नहीं हुई हैं ।
हाल ही में ट्रम्प ने अपने टैरिफ पर नब्बे दिन की रोक लगाने के पीछे बॉन्ड्स मार्केट को वजह बताया था। ये बॉन्ड्स मार्केट पहले भी अमेरिकी राष्ट्रपतियों को डराते रहे हैं। 1990 के दशक के राजनीतिक सलाहकार जेम्स कारविल ने कहा था “पहले मैं सोचता था कि अगर मेरा पुनर्जन्म होता , तो मैं राष्ट्रपति , पोप या 100 बैटिंग ऐवरेज वाला बेसबॉल खिलाड़ी बनना चाहता लेकिन अब मैं बॉन्ड मार्केट बनना चाहता हूँ , क्यूंकि वो सबको डरा सकता है । “
क्या डॉलर का युग खत्म हो रहा है? विकल्पों की पड़ताल
कुछ समय से निवेशक डॉलर (Dollar) से दूर भाग रहे हैं । पिछले वर्षों में कई देशों ने सोने की खरीद को बहुत तेजी से बढ़ाया है लेकिन जब दुनिया में बचत तेजी से मिट्टी में मिल रही है , तब आखिर किस चीज की कीमत पर भरोसा किया जा सकता है । आप भी सोचिए कि :-
- क्या यूरो डॉलर (Dollar) का विकल्प हो सकता है ? यूरोप संघ के बाजार उतने डाइनमिक नहीं हैं और पूरे यूरोपीय संघ की अर्थव्यवस्था चीन से भी छोटी है ।
- तो क्या चीन का युआन डॉलर का विकल्प बन सकता है ? चाहे चीन की सरकार हो या आर्थिक संस्थाएँ , दुनिया के ज्यादातर देशों को उनकी पारदर्शिता पर विश्वास नहीं है ।
- फिर क्या स्विस फ्रैंक तथा जापानी येन जैसी करन्सी यह कर सकती है ? इसकी संभावना भी कम हुई है । बिट कॉइन या अन्य क्रिप्टो पर भी वित्तीय संस्थाएँ उस तरह से विश्वास नहीं करती ।
सोने की ओर वापसी? क्या फिर से आएगा गोल्ड स्टैन्डर्ड
ऐसे में सोना ही बचता है, जिसे वित्तीय संस्थाएँ और देश अपनी पूंजी को सुरक्षित रखने का विकल्प मान सकते हैं। सोने की खरीद को लेकर दुनिया के केन्द्रीय बैंकों की आतुरता और इसके दाम दिखा भी रहे हैं कि कोई नई व्यवस्था आने तक गोल्ड स्टैन्डर्ड की वापसी हो सकती है ।
(Source:- DW की रिपोर्ट से प्रेरित)