छायावाद के शिव कहे जाने वाले महामानव महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी पुण्यतिथि पर उन्हें शत शत नमन।
आज हम आपको एक ऐसे व्यक्तित्व के बारे में बताएंगे जिन्होंने अपनी कविता के माध्यम से खुद के लिए कहा था-
धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध,
धिक् साधन, जिसके लिए सदा ही किया शोध!
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का संक्षिप्त जीवन परिचय-
आधुनिक हिंदी कविता में छायावाद के प्रमुख चार स्तंभों में से एक सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी का जन्म 21 फरवरी 1899 में पश्चिम बंगाल के मेदिनीपुर में हुआ था। उनके बचपन का नाम सुर्जकुमार था। उनके पिता का नाम पंडित रामसहाय तिवारी था, जो सिपाही की नौकरी करते थे। निराला जी ने स्वतंत्र रूप से हिंदी, संस्कृत और बंगाल का अध्ययन किया। जब निराला जी 3 वर्ष के थे तब उनकी माता जी का और जब 20 वर्ष के हुए तो उनके पिताजी का देहांत हो गया। 20 वर्ष की अवस्था में उनके परिवार का बोझ उनके कंधों पर आ गया।
प्रथम विश्व युद्ध के बाद फैली महामारी से उनकी पत्नी,भाई, भाभी और चाचा जी का भी देहांत हो गया। कुछ समय पश्चात उन्होंने अपनी बेटी को भी खो दिया जिससे वो बहुत ही आहत हो गए थे। उन्होंने हिंदी का प्रथम शोकगीत सरोजस्मृति जो अपनी बेटी सरोज की मृत्यु के बाद लिखा था। उनका अंत समय इलाहबाद के एक कमरे मे बहुत ही संघर्ष मे बीता और वहीं 15 अक्टूबर 1961 को उनका निधन हो गया। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने निराला की मृत्यु के पश्चात् लिखा था-
राष्ट्रपिता बापू की मृत्यु के बाद मौलाना आजाद ने अपने एक भाषण में कहा था कि कहीं बापू के खून के छींटे हमारे ही हाथों पर तो नहीं! यही प्रश्न निराला जी के संबंध में हम लोगों के मन में भी उत्पन्न होता है।
कवि या पत्रकार
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला साहित्यिक पत्रकारिता मे एक अद्भुत और अमिट हस्ताक्षर के समान हैं।निराला जी एक अप्रतिम कवि होने के साथ-साथ एक अद्भुत पत्रकार भी थे। उनका सम्बन्ध प्रभा, सरस्वती, माधुरी, आदर्ष, शिक्षा और मतवाला जैसे प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं से रहा। मतवाला पत्रिका से उनका विशेष अपनत्व रहा। मतवाला पत्रिका के प्रथम पृष्ठ पर अंकित इन पंक्तियों से उनके नाम के साथ “निराला” जुड़ा।
अमिय-गरल, शशि-शीकर, रवि-कर, राग-विराग भरा प्याला
पीते हैं जो साधक उनका प्यारा है यह मतवाला।
निराला और सरोज स्मृति
निराला जी की रचनाओं में उनके जीवन का दर्द सुनाई देता था। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी को उनकी पुत्री की मृत्यु ने झकझोर कर रख दिया था। उस महामानव महाप्राण ने बेटी की विकलता में निम्न पंक्तियों को लिखा था, जिसे विभिन्न लेखकों ने सर्वश्रेष्ठ शोक गीत की संज्ञा दी है-
मुझ भाग्यहीन की तू संबल
युग वर्ष बाद जब हुई विकल,
दु:ख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ आज, जो नहीं कही!
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म, रहे नत सदा माथ
इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
हों भ्रष्ट शीत के-से शतदल!
कन्ये, गत कर्मों का अर्पण
कर, करता मैं तेरा तर्पण!
धन्ये, मैं पिता निरर्थक था,
कुछ भी तेरे हित न कर सका।
जाना तो अर्थागमोपाय
पर रहा सदा संकुचित-काय
लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर
हारता रहा मैं स्वार्थ-समर।
शुचिते, पहनाकर चीनांशुक
रख सका न तुझे अतः दधिमुख।
क्षीण का न छीना कभी अन्न,
मैं लख न सका वे दृग विपन्न;
अपने आँसुओं अतः बिंबित
देखे हैं अपने ही मुख-चित।
सोचा है नत हो बार-बार
“यह हिंदी का स्नेहोपहार,
यह नहीं हार मेरी, भास्वर
वह रत्नहार—लोकोत्तर वर।
अन्यथा, जहाँ है भाव शुद्ध
साहित्य-कला-कौशल-प्रबुद्ध,
हैं दिए हुए मेरे प्रमाण
कुछ वहाँ, प्राप्ति को समाधान,
पार्श्व में अन्य रख कुशल हस्त
गद्य में पद्य में समाभ्यस्त।
देखें वे; हँसते हुए प्रवर
जो रहे देखते सदा समर,
एक साथ जब शत घात घूर्ण
आते थे मुझ पर तुले तूर्ण।
देखता रहा मैं खड़ा अपल
वह शर क्षेप, वह रण-कौशल।
व्यक्त हो चुका चीत्कारोत्कल
ऋद्ध युद्ध का रुद्ध-कंठ फल।
और भी फलित होगी वह छवि,
जागे जीवन जीवन का रवि,
लेकर, कर कल तूलिका कला,
देखो क्या रंग भरती विमला,
वांछित उस किस लांछित छवि पर
फेरती स्नेह की कूची भर।
अस्तु मैं उपार्जन को अक्षम
कर नहीं सका पोषण उत्तम
कुछ दिन को, जब तू रही साथ,
अपने गौरव से झुका माथ।
पुत्री भी, पिता-गेह में स्थिर,
छोड़ने के प्रथम जीर्ण अजिर।
आँसुओं सजल दृष्टि की छलक,
पूरी न हुई जो रही कलक
प्राणों की प्राणों में दबकर
कहती लघु-लघु उसाँस में भर;
समझता हुआ मैं रहा देख
हटती भी पथ पर दृष्टि टेक।
मुक्तक छंद के प्रवर्तक निराला जी
पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी को मुक्तक छंद का प्रवर्तन कहा जाता है। इन्होंने अपनी प्रथम कविता जूही की काली में मुक्तक छंद का प्रयोग किया था। जिसे पढ़कर सरस्वती पत्रिका के संपादक पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी ने उनकी कविता को प्रकाशित करने से मना करके इन्हें वापस लौटा दिया। निराला के मुक्त छंद को “रबर” या “केंचुआ” चांद भी कहते हैं।
निराला ने परिमल काव्य संग्रह की भूमिका में लिखा है कि- “मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है मनुष्य की मुक्ति कर्मों को बंधनों से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छंदों के शासन से अलग हो जाना है”
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‘राम की शक्ति पूजा’ और उनकी अद्वितीय लेखनी
राम की शक्ति पूजा में लिखे गए छंद को कुछ लोग शक्ति पूजा छंद नाम से भी जानते हैं। राम की शक्ति पूजा कविता निराला की एक अप्रत्न कविता में से एक है जिसे हर व्यक्ति को पढ़ना चाहिए। जिसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं –
धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध,
धिक् साधन, जिसके लिए सदा ही किया शोध!
जानकी! हाय, उद्धार प्रिया का न हो सका।”
वह एक और मन रहा राम का जो न थका;
जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय
कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय,
बुद्धि के दुर्ग पहुँचा, विद्युत्-गति हतचेतन
राम में जगी स्मृति, हुए सजग पा भाव प्रमन।
“यह है उपाय” कह उठे राम ज्यों मंद्रित घन
“कहती थीं माता मुझे सदा राजीवनयन!
दो नील कमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण
पूरा करता हूँ देकर मातः एक नयन।”
कहकर देखा तूणीर ब्रह्मशर रहा झलक,
ले लिया हस्त, लक-लक करता वह महाफलक;
ले अस्त्र वाम कर, दक्षिण कर दक्षिण लोचन
ले अर्पित करने को उद्यत हो गए सुमन।
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जिस क्षण बँध गया बेधने को दृग दृढ़ निश्चय,
काँपा ब्रह्मांड, हुआ देवी का त्वरित उदय
‘‘साधु, साधु, साधक धीर, धर्म-धन धन्य राम!”
कह लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम।
देखा राम ने—सामने श्री दुर्गा, भास्वर
वाम पद असुर-स्कंध पर, रहा दक्षिण हरि पर:
ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध अस्त्र-सज्जित,
मंद स्मित मुख, लख हुई विश्व की श्री लज्जित,
हैं दक्षिण में लक्ष्मी, सरस्वती वाम भाग,
दक्षिण गणेश, कार्तिक बाएँ रण-रंग राग,
मस्तक पर शंकर। पदपद्मों पर श्रद्धाभर
श्री राघव हुए प्रणत मंदस्वर वंदन कर।
”होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन!”
कह महाशक्ति राम के वदन में हुईं लीन।
निराला जी जैसा व्यक्तित्व होना असम्भव है पर हम उनके आदर्शो पर चले यही हमारे लिए एक प्रेरणा है। उनके बारे मे लिखने के लिए बहुत कुछ है परन्तु उन महामानव के लिए ज्यादा कुछ लिख सकें इतना सामर्थ्य हमारी लेखनी मे नहीं। ऐसे महाप्राण निराला जी को उनकी पुण्यतिथि पर शत शत नमन।