देवभूमि उत्तराखंड अपनी खुबसूरती तथा यहां मनाए जाने वाले अनेकों लोक पर्व की वजह से जाना जाता हैं। उत्तराखंड में मनाए जाने वाले हर एक पर्व जिसका अपना कुछ न कुछ महत्व जरूर होता है। आज हम आपको भादो महीने के पहले दिन मनाए जाने वाले घी संक्रांति त्योहार के बारे में रूबरू कराने जा रहे हैं।
उत्तराखंड का अनोखा पर्व – घी संक्रांति
उत्तराखंड का कुमाऊनी पर्व घी संक्रांति का त्यौहार बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है, इस त्यौहार के दिन सभी लोग अपने अपने घरों में पकवान बनते है तथा घी को अपने सर पर रखते है।
कहा जाता है कि इस दिन अगर कोई व्यक्ति घी आने सिर पर नहीं रखता है तो वो अगले जनम में “गनेल “ के रूप में जन्म लेता है। आपको बता दें कि उत्तराखंड राज्य अपनी संस्कृति और परंपरा के लिए जाना जाता है। ऐसे पारंपरिक त्योहारों में घी संक्रांति प्रसिद्ध है। घी संक्रांति को क्षेत्रीय भाषा में घी त्यार, घ्यू त्यार, घु संक्रांति और ओल्गिया भी कहा जाता है। घी संक्रांति के दिन घी खाने का विशेष महत्व है।
घी संक्रांति कब और कैसे मनाई जाती है
◉ घी संक्रांति पर्व भादो मास की प्रथम तिथि को मनाया जाता है।
◉ लोग कटोरी में घी भरकर पहले भोग लगाते हैं, फिर उसके उपरांत विभिन्न प्रकार के ब्यंजन बनाकर भोग चढ़ाते हैं।
◉ घी संक्रांति का पर्व उत्तराखंड राज्य मैं धूम धाम से मनाया जाता है।
घी संक्रांति का इतिहास और महत्व
घी संक्रांति मूल रूप से यह एक मौसमी त्योहार है, जिसे खेती से जुड़े किसानों और पशुपालकों द्वारा उत्साहपूर्वक मनाया जाता है। इस दिन गांव के घरों की महिलाएं अपने बच्चों के सिर पर ताजा मक्खन मलती हैं और उनकी लंबी उम्र की कामना करती हैं। गांव के किसान अपने खेतों में उगाए गए फल और सब्जियां शाही दरबार में चढ़ाते थे, जिसे ओलाग का रिवाज कहा जाता था।
व्यक्ति का पारिवारिक आधार चाहे जो भी हो, इस दिन सभी के लिए घी अथवा मक्खन सिर पर मलना तथा खाने में इसका प्रयोग करना आवश्यक माना जाता है। कुमाऊं मंडल में इस ऋतु उत्सव को ‘ओलगिया‘ कहा जाता है। इस त्यौहार पर उपहार दिए जाते हैं और विशेष भेंट को ‘ओलग’ कहा जाता था। पुराने समय में यहां के कृषक अपने भूस्वामियों तथा शासन को यह उपहार देते थे। पुरातन लोक मान्यताओं के अनुसार इस दिन दामाद की ओर से भी अपने ससुरालियों को उपहार (ओलग) दिया जाता था।
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घी संक्रांति से जुड़ी प्रमुख लोक मान्यताएं
◉ इस दिन बेदू रोटी / बेड़वा रोटी (उरद की दाल से भरी हुई रोटी) को मक्खन या घी के साथ खाने का रिवाज है।
◉ इस पर्व पर कृषक वर्ग सबसे पहले ग्राम देवता को गेबे (अरबी पत्ते), मक्का, दही, घी, मक्खन आदि का ओलग अर्पित करते हैं।
◉ पंडितों, पुजारियों और रिश्तेदारों को भी ओलाग दिया जाता है।
त्योहार की वर्तमान परिस्थिति
जो लोग किसान नहीं थे अर्थात शिल्पकार लोग अपने स्थानीय स्वामियों तथा आश्रयदाताओं को अपने हाथ की बनी शिल्पीय वस्तुएं, यथा लोहार-दराती, कुदाल, दीपकदान, पिजरें आदि, दर्जी नमूनेदार टोपियां, बटुए, देवी देवताओं के कपड़े आदि तथा बढ़ई बच्चों के खेलने के लिए कड़कड़वा बाजा, डोली, लकड़ी की गुल्लख आदि लाकर भेंट करते थे। गृहशिल्पों के विलुप्त हो जाने तथा परम्परागत व्यवसायों की विमुखता के कारण ‘ओलग’ (भेंट)’ देने की परम्परा भी समाप्त हो सी ही गयी है।
किन्तु ग्रामीण समाज में ‘घी संक्रान्ति’ को मनाये जाने तथा सर्वप्रथम देवी-देवताओं तथा पूज्यजनों को भेंट करके ही गाबे खाने की परम्परा अभी भी जीवित है। पर नवीन शहरीकरण वाले चक्र में यह कब तक जीवित रह सकेगी यह कहना कठिन ही है।