चर्चा इतिहास पर। भारत में आज के हालात को देखते हुए हम यही सोच पा रहें हैं कि देश के अमुमन गाँव, शहर में बदल रहें है लेकिन आपको एक बात जानकार हैरानी होगी कि एक समय भारत में ऐसा भी आया जब हमारे शहर, गाँव में बदलते जा रहे थे। वो समय कैसा रहा होगा? जब एक शहर अपने विकास के चरम पर पहुँचने के बाद उल्टे पाँव, गाँव की तरफ लौट रहा होगा ? कहते हैं इतिहास स्वयं को दोहराता है, इसीलिए इतिहास जानना जरूरी हो जाता है, ताकि हम अतीत में हुई किसी गलती को वर्तमान या भविष्य में, ना दोहराने की कोशिश कर पाएँ। देश में आज की स्थिति की बात करना ये हम आप पर छोड़ते हैं लेकिन अतीत की उस कहानी के लिए निम्न पक्तियाँ सटीक बैठती नजर आती हैं –
बस जवानी का सौदा हुआ है शहर से मेरा,
शहर ने कहा है बूढ़े होकर गाँव लौट जाना
बात 19 वीं सदी के प्रथम उत्तरार्ध से लेकर 1880 तक की है जब भारत की अर्थव्यवस्था में एक विचित्र बदलाव आया। वो समय ‘औद्योगीकरण’ (industrialization)का था। यूरोप के देशों में उद्योगीकरण हो रहा था और भारत के घरेलू उद्योग (domestic industry) पतन की ओर अग्रसर थे। ‘औद्योगीकरण’ (industrialization) की इस क्रांति में भारत को ब्रिटेन का ‘खेतिहर उप – अंग’ बना दिया गया।
- इंग्लैंड (England) और बाकी अन्य यूरोपीय देशों में स्वदेशी आधुनिक उद्योगों ने भारत के देशी हस्तशिल्प को बर्बाद कर दिया था। अपने पेशे से बेदखल हुए शिल्पकार (sculptor), स्वदेशी आधुनिक उद्योगों में खप गए। भारत में, घरेलू शिल्पकलाओं का पतन तो हुआ लेकिन इसके साथ – साथ कोई मशीनी उद्योग नहीं लगे। इतिहासकारों ने इस युग को “ब्रिटिश भारत के इतिहास का सबसे दुखद अध्याय” कहा है। कृषि और उद्योग क्षेत्र के बीच संतुलन बिगड़ने तथा घरेलू उद्योगों के दमन के कारण राष्ट्रीय आय के श्रोत पूरी तरह नष्ट हो गए। ब्रिटिश उद्योगों की हुंकार ने लाखों कारीगरों को उनके पारंपरिक पेशे से वंचित कर उन्हे खेती पर निर्भर होने के लिए मजबूर कर दिया। जीवन – यापन के लिए खेती पर आबादी का दबाव बढ़ गया यानि जहां 2 लोग गाँव में खेती का काम संभाल लेते थे, अब उनके साथ 3 और लोग इस काम मे जुड़ गए थे। ब्रिटेन में कच्चे माल की आपूर्ति के लिए लोगों को खेती करने के लिए गाँव की तरफ धकेला गया। इस तरह देश में नगर, गाँव में तब्दील होने लगे। देश का ग्रामीणीकरण (Ruralization) होने लगा।
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भारत की अर्थव्यवस्था पर सबसे बुरा असर अगर पड़ा है तो वह है घरेलू उद्योगों का समाप्त हो जाना, जिसकी कमी आज भी हमारे देश के अनगिनत गाँवो को खलती है। सरकारें हमेशा नए घरेलू उद्योगों का दावा करती रहती हैं लेकिन जमीनी हकीकत पर ये दावे काम नहीं करते हैं। इसका एकमात्र कारण है बिना भोगोलिक परिस्थितियों का अध्ययन किये योजनाओं को लागू करना, साथ ही उन्हे जटिल प्रक्रिया के साथ लागू करना। ये कुछ ऐसे ही बुनियादी कारण हैं जो किसी भी ग्रामीण योजना को फलीभूत नहीं होने देते हैं।
- अगर अतीत की बात करें तो इतिहासकार कहते हैं ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश पार्लियामेंट की अनर्थकारी नीतियाँ भारतीय हस्तकला के पतन के लिए मुख्यतया जिम्मेदार थीं। आरंभ में ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय शिल्पकला को प्रोत्साहित किया। क्योंकि इन हस्तनिर्मित वस्तुओं के यूरोपीय बाजारों मे निर्यात से उन्होंने बहुत मुनाफा कमाया। लेकिन जल्द ही कंपनी पर दबाव बनाया गया कि वो अपनी नीतियों को बदले और केवल कच्चे माल के निर्यात पर ध्यान केंद्रित करे, क्योंकि ब्रिटेन के कारखानों को इसकी जरूरत थी। यही नहीं बिजली से चलने वाले हथकरघों ने भी भारतीय वस्त्र उद्योग के पतन मे अपनी भूमिका निभाई। कार्ल मार्क्स के शब्दों में “अंग्रेजों के बिजली से चलने वाले करघों ने भारत के हथकरघों को ध्वस्त कर दिया और कपास की जननी कहे जाने वाले देश को सूती सी कपड़ों से लाद दिया।”
हालांकि, भारतीय दस्तकार मशीनों से बनी वस्तुओं का मुकाबला कर सकते थे, बशर्ते कीमत के मामले में मुकाबला निष्पक्ष हो। लेकिन कीमत के मामले में तो उनके साथ भेदभाव हो रहा था। रेल्वे लाइन और संचार साधनों में उन्नति होने से बने बनाए कपड़ों व अन्य वस्तुओं को देश के दूर-दराज इलाकों मे पहुंचना आसान हो गया था, जिससे देशी वस्त्र उद्योग व शिपकला को भारी नुकसान हुआ। सूखे के दौरान गरीब शिल्पकार, विशेषकर बुनकर, कोई और काम तलाश कर जीवन यापन करने में असमर्थ रहे।
- शिल्पकारों की स्थिति में बदलाव के कारण का एक पहलू यह था की वे दिहाड़ी पर काम करने वाले कामगार बनने लगे। जैसे पहले ये लोग ग्रामीणों की जरूरतों को पूरा करते थे और बाजार में बेचने के लिए कभी भी कोई औज़ार या उपकरण नहीं बनाते थे। नई परिस्थितियों में, बुनकर अपने उत्पादों को स्थानीय और दूर – दूर के बाजार मे बेचने के लिए बिचौलियों पर निर्भर होने लगे। बाजार में अब टिकने के लिए ज्यादा पूंजी की जरूरत पड़ने लगी और ये बुनकर बिचौलियों के जाल मे फंस गए। कई लोग अपना पेशा छोड़ कर शहरों में मजदूरी का काम करने लगे। गौरतलब है कि घरेलू उद्योगों के पतन से ग्रामीणों का जीवन तबाह हो गया। परिणाम के तौर पर शिल्पकार बेरोजगार होकर खेती पर निर्भर हो गए।
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समाज की समस्याओं को ध्यान में रख कर आज की सरकारें काम करें यही हम सब उम्मीद करते हैं ताकि इतिहास स्वयं को उस तरीके से ना दोहरा पाए जिससे भविष्य में हमारे उत्तराधिकारियों को बुरे परिणामों का सामना करना पड़े।
जून चला गया, रौनक भी चली गयी
कोई शहर चले गये कोई भाबर चले गये|
साथ मे चले गये प्याजों के कट्टे और लासण के झुण्टे
और बेडू तिमला काफल की तस्वीरें
चले गये बोलकर कि असूज मे भेज देना ककडी़ मुंगरी के फन्चे
वो आये कुछ दिन और बढा़ गये
गाँवों पन्देरों की चहल पहल
कच्ची सड़कों पर ट्रैफिक
और बाजारों की खरीददारी
कुछ हमसे सीख कर कुछ हमे सिखा कर गये
सीख कर गये आलू की थिचोंणी,
और आलण बनाना
सिखा कर गये जन्मदिन सालगिरह मनाना
रील्स और ब्लाग बनाना
किटी पार्टी करना सिखा गये कारों मे, धारों मे और बाजारों मे,
ऊपर ढय्यों के बन्द मन्दिरों मे बजा गये घण्टियाँ
और बता गये इनकी धार्मिक महत्ता|
अपनी तो मजबूरी बताकर
समझा गये हमें क्यारी खेती बाडी़ करने
गाय भैंस पालने के फायदे,
और स्वरोजगार के कायदे |
बस कुछ दिन ही खडी़ रही
गाँवो के ऊपर नीचे सारियों मे लाल
सफेद काली चमचमाती कारें
जो सरपट दौड़कर छोड़ गये हमे फिर अकेला
मगर हमारे अकेलेपन को देखकर
साथ देने आ गयी
रिमझिम बरखा की बूँदे,
निकल आई घास की कोंपलें
डाण्डों से उड़ता कोहरा
अभी तो छुय्ये भी फूटेंगे
नीचे गदेरा भी जोर से पुकारेगा
उन्हे तरसायेगा हर्षायेगा और फिर यहीं बुलायेगा।
जय हो मेरी देवभूमि उत्तराखंड 👏😘😘