17 सितंबर 2025: भारत एक ऐसा देश है जहां की मिट्टी में विविधताओं की खुशबू बसी हुई है। यहां हर दिन कोई न कोई त्यौहार या पर्व लोकजीवन को रोशन करता है। 17 सितंबर 2025 का दिन दो विशेष पर्वों का साक्षी बनेगा – कुमाऊँ के लोगों की जीवनशैली और कृषि संस्कृति से जुड़ा खतुड़वा पर्व और श्रम, तकनीक तथा सृजन के देवता भगवान विश्वकर्मा को समर्पित विश्वकर्मा पूजन दिवस। ये दोनों त्यौहार अलग पहचान रखने के बावजूद श्रम, संस्कृति और आस्था की गहरी जड़ों से जुड़े हुए हैं।
खतुड़वा पर्व: खेत-खलिहानों का उत्सव
उत्तराखंड की कुमाऊँनी संस्कृति विविध लोकपर्वों एवं परंपराओं से समृद्ध है। इन पर्वों में खतुड़वा एक प्रमुख त्योहार है, जिसे खासतौर पर कृषक समुदाय बड़े उत्साह से मनाता है। यह पर्व वर्षा ऋतु की समाप्ति और नये कृषि चक्र की शुरुआत से जुड़ा हुआ है। खतुड़वा मनाने का मुख्य उद्देश्य भूमि, पशुधन और मानव श्रम के सामंजस्य को याद करना है। इस दिन गांवों में विशेष व्यंजन जैसे पूरियाँ, भट्ट की चुड़काणी, झंगोरे की खीर और घी से बने पकवान बनाए जाते हैं।
किसान अपने खेतों में काम करने वाले पशुओं को सजाते हैं, उन्हें नहलाया-धुलाया जाता है और अच्छे चारे व भोजन से तृप्त किया जाता है। बच्चों और युवाओं के लिए यह पर्व मस्ती और मेल-मिलाप का अवसर होता है। कई जगह लोकगीत और पारंपरिक नृत्य भी होते हैं। इस पर्व का सबसे बड़ा संदेश यह है कि इंसान केवल अपने श्रम पर ही नहीं, बल्कि प्रकृति और पशुधन पर भी निर्भर है। उनकी अहमियत को स्वीकार कर आभार व्यक्त करना ही खतुड़वा का सार है।
विश्वकर्मा पूजन दिवस: श्रम और सृजन की परंपरा
हर वर्ष 17 सितंबर को देशभर में विश्वकर्मा जयंती मनाई जाती है। भगवान विश्वकर्मा को सृष्टि का प्रथम शिल्पकार और यंत्र-विज्ञान का जनक माना गया है। माना जाता है कि सोने के लंका महल, द्वारका नगरी, इंद्रपुरी और यहां तक कि पांडवों का प्रसिद्ध इंद्रप्रस्थ भी विश्वकर्मा द्वारा ही निर्मित किए गए थे। आधुनिक समय में विश्वकर्मा पूजन दिवस का महत्व और भी बढ़ गया है। इस दिन कारखानों, वर्कशॉप, फैक्ट्रियों और कार्यालयों में मशीनरी और उपकरणों की विधिवत पूजा की जाती है।
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शिल्पकला, तकनीक और श्रम से जुड़े लोग अपने औजारों को साफ-सुथरा करके उनका पूजन करते हैं। बड़े शहरों से लेकर गांव तक, लोहार, कारीगर, इंजीनियर, आर्किटेक्ट और तकनीकी क्षेत्र में काम करने वाले सभी लोग इस दिन को श्रम के पर्व के रूप में मनाते हैं। पूजा के बाद प्रसाद वितरण, भंडारे और लोकगीतों के कार्यक्रम भी होते हैं। विश्वकर्मा पूजा हमें यह सीख देती है कि श्रम ही देवता है और सृजन ही पूजन है। किसी भी मशीन या साधन को ईश्वर के रूप में मानकर उसका संरक्षण करना हमारी आस्था और जिम्मेदारी दोनों है।
सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व
- खतुड़वा और विश्वकर्मा पूजन – ये दोनों पर्व मानवीय जीवन के दो अलग-अलग लेकिन महत्वपूर्ण पहलुओं को सामने लाते हैं।
- खतुड़वा हमें कृषि, प्रकृति और पशुधन के सामंजस्य की याद दिलाता है। यह ग्रामीण जीवन और लोकसंस्कृति का उत्सव है।
वहीं विश्वकर्मा पूजन हमें आधुनिक तकनीक, औद्योगिक विकास और श्रम के महत्व को समझाता है। यह पर्व हमें बताता है कि हम चाहे कितनी भी तरक्की कर लें, परंतु सृजन और श्रम ही हमारी असली पूंजी हैं। आज जब समाज तेजी से बदल रहा है, ये पर्व हमें जड़ों से जुड़े रहने का संदेश देते हैं। ग्रामीण संस्कृति और तकनीकी सभ्यता का यह सुंदर संगम भारतीय जीवन की विविधता और सामंजस्य को दर्शाता है।
क्यों मनाते है खतुड़वा पर्व
कुमाऊनी पर्व खतुड़वा इसलिए मनाया जाता है क्योंकि यह पर्व मुख्य रूप से पशुओं के उत्तम स्वास्थ्य, उनकी देखभाल और ऋतु परिवर्तन को समर्पित है। इसे वर्षा ऋतु के समाप्त होने और शरद ऋतु की शुरुआत के रूप में मनाया जाता है। इस दिन पशुओं के रहने की जगह (गोठ) की सफाई की जाती है, पशुओं को नहलाया-धुलाया जाता है और उन्हें ताजी हरी घास खिलाई जाती है। इसके बाद घर में अलाव जलाकर हवन किया जाता है और पारंपरिक व्यंजन बनाए जाते हैं। खतुड़वा पर्व कुमाऊं क्षेत्र में खेती-बाड़ी और पशुपालन से जुड़ी जीवनशैली का उत्सव है, जो फसल कटाई के बाद नए कृषि चक्र की शुरुआत का प्रतीक भी माना जाता है।
कुछ जगहों पर लोककथाओं के अनुसार खतुड़वा को कुमाऊं और गढ़वाल के सेनापतियों के युद्ध की याद में भी जोड़ा जाता है, परन्तु इतिहासकार इसे मिथक मानते हैं। वास्तविकता यह है कि खतुड़वा पर्व पशुओं की देखभाल, उनकी रक्षा और प्रकृति के साथ संतुलन बनाने का पर्व है, जो कृषि प्रधान समाज की परंपरा में गहरा स्थान रखता है। इस पर्व के माध्यम से कुमाऊं के लोग पशुओं का सम्मान करते हैं और अंधकार व ठंड से उनका संरक्षण करने का संदेश देते हैं, जिससे यह पर्व ग्रामीण जीवन में बेहद महत्वपूर्ण है।
क्या है विश्वकर्मा पूजन की कहानी
विश्वकर्मा पूजा की कहानी पौराणिक मान्यताओं और धार्मिक आख्यानों पर आधारित है। भगवान विश्वकर्मा को वास्तुकला, शिल्पकला और सृजन के देवता माना जाता है।कथा के अनुसार, सृष्टि के प्रारंभ में भगवान विष्णु की नाभि से कमल निकला, जिससे ब्रह्मा जी का जन्म हुआ। ब्रह्मा के पुत्र वास्तुदेव थे, जिनकी पत्नी अंगिरसी से ऋषि विश्वकर्मा का जन्म हुआ। विश्वकर्मा जी को वास्तुकला का महान आचार्य माना गया, जिन्होंने देवताओं के महल, अस्त्र-शस्त्र, यंत्र और नगरों का निर्माण किया। पांडवों की इंद्रप्रस्थ नगरी, भगवान श्रीकृष्ण की द्वारका नगरी और इंद्र का व्रज विश्वकर्मा के शिल्पी कौशल की मिसाल हैं।
एक कथा में बताया गया है कि प्राचीन काल में मुनि और ऋषि यज्ञ करने आए थे, लेकिन दुष्ट राक्षस यज्ञ विघ्न करते थे। इस संकट से बचने के लिए ब्रह्मा जी ने उन्हें विश्वकर्मा की शरण लेने को कहा। मुनि लोग विश्वकर्मा की पूजा के बाद उन राक्षसों से मुक्त हो गए। इसके बाद से विश्वकर्मा पूजन की परंपरा चली आ रही है। विश्वकर्मा पूजा का दिन उनके श्रम, रचनात्मकता और तकनीकी कौशल को समर्पित है। यह पूजा औजारों, मशीनों और उपकरणों का सम्मान करने का पर्व भी है, जिसे खासतौर पर कारीगर, इंजीनियर, उद्योगपति और श्रमिक बड़े श्रद्धा से मनाते हैं।