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क्यों मनाया जाता है पौराणिक स्याल्दे बिखौती मेला? क्या है आल, गरख और नौज्यूला की विशेषता? जानिए पूरी खबर में।

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द्वाराहाट: अल्मोड़ा जनपद के विकासखंड द्वाराहाट में सम्पन्न होने वाला पौराणिक स्याल्दे बिखौती का प्रसिद्ध मेला प्रतिवर्ष वैशाख माह में सम्पन्न होता है । हिन्दू नव संवत्सर की शुरुआत ही के साथ इस मेले की भी शुरुआत होती है जो चैत्र मास की अन्तिम तिथि से शुरु होता है। यह मेला द्वाराहाट से 8 किलोमीटर दूर प्रसिद्ध शिव मंदिर विभाण्डेश्वर में लगता है, मेला दो भागों में लगता है। पहला चैत्र मास की अन्तिम तिथि को विभाण्डेश्वर मंदिर में तथा दूसरा वैशाख माह की पहली तिथि को द्वाराहाट बाजार में लगता है। मेले की तैयारियाँ गाँव-गाँव में एक महीने पहले से शुरु हो जाती हैं। गांव में लोग झोड़ा चांचरी गाते है। आपको बता दे कि चैत्र मास की अन्तिम रात्रि को विभाण्डेश्वर में क्षेत्र के तीन धड़ों या आलों के लोग एकत्र होते हैं। विभिन्न गाँवों के लोग अपने-अपने ध्वज सहित इनमें रास्ते में मिलते जाते हैं। ढोल दमाऊ, नगाड़े के साथ झोड़ा चांचरी गाते हुए लोग मग्न होते है।

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क्यों मनाई जाती है बिखौती?

विषुवत् संक्रान्ति ही बिखौती नाम से जानी जाती है । इस दिन स्नान का विशेष महत्व है । मान्यता है कि जो उत्तरायणी पर नहीं नहा सकते, कुम्भ स्नान के लिए नहीं जा सकते उनके लिए इस दिन स्नान करने से विषों का प्रकोप नहीं रहता । अल्मोड़ा जनपद के पाली पछाऊँ क्षेत्र का यह एक प्रसिद्ध मेला है, इस क्षेत्र के लोग मेले में विशेष रुप से भाग लेते हैं । इस मेले की परम्परा कितनी पुरानी है तो आइए जानते है कि क्यों मनाई जाती है बिखौती? शीतला देवी नामक एक मंदिर था, यहां लोग प्राचीन समय से ही ग्रामवासी आते थे तथा देवी को श्रद्धा सुमन अर्पित करने के बाद अपने-अपने गाँवों को लौट जाया करते थे । लेकिन एक बार किसी कारण दो दलों में खूनी युद्ध हो गया। हारे हुए दल के सरदार का सिर खड्ग से काट कर जिस स्थान पर गाड़ा गया वहाँ एक पत्थर रखकर स्मृति चिन्ह बना दिया गया। इसी पत्थर को ओड़ा कहा जाता है । यह पत्थर द्वाराहाट के मुख्य बाजार में है। इसे आज भी देखा जा सकता है। अब यह परम्परा बन गयी है कि इस ओड़े पर चोट मार कर ही आगे बढ़ा जा सकता है। इस परम्परा को ‘ओड़ा भेटना’ कहा जाता है। इस मेले की प्रमुख विशेषता है कि पहाड़ के अन्य मेलों की तरह इस मेले से सांस्कृतिक तत्व गायब नहीं होने लगे हैं । पारम्परिक मूल्यों का निरन्तर ह्रास के बावजूद यह मेला आज भी किसी तरह से अपनी गरिमा बनाये हुए है ।

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इस मेले के दिन इन गावों से आते है ढोल-नगाड़े

पहले कभी यह मेला इतना विशाल था के अपने अपने दलों के चिन्ह लिए ग्रामवासियों को ओड़ा भेंटने के लिए दिन-दिन भर इंतजार करना पड़ता था । सभी दल ढोल-नगाड़े और निषाण से सज्जित होकर आते थे। तुरही की हुँकार और ढोल पर चोट के साथ हर्षोंल्लास से ही टोलियाँ ओड़ा भेंटने की रस्म अदा की जाती थीं । लेकिन बाद में इसमें थोड़ा सुधारकर आल, गरख और नौज्यूला जैसे तीन भागों में सभी गाँवों को अलग-अलग विभाजित कर दिया गया । इन दलों के मेले में पहुँचने के क्रम और समय भी पूर्व निर्धारित होते हैं । स्याल्दे बिखौती के दिन इन धड़ों की सजधज अलग ही होती है । हर दल अपने-अपने परम्परागत तरीके से आता है और रस्मों को पूरा करता है । आल नामक धड़ों तल्ली-मल्ली मिरई, विजयपुर, पिनौली, तल्ली मल्लू किराली के कुल 6 गांव है । इनका मुखिया मिरई गाँव का थौकदार हुआ करता है । गरख नामक धड़ों में सलना, बसेरा, असगौली, सिमलगाँव, बेदूली, पैठानी, कोटिला, गवाड़ तथा बूँगा आदि लगभग चालीस गाँव सम्मिलित हैं । इनका मुखिया सलना गाँव का थोकदार हुआ करता है । नौज्यूला नामक तीसरा धड़ों छतीना, विद्यापुर, बमनपुरी, सलालखोला, कौंला, इड़ा, बिठौली, कांडे, किरौलफाट आदि गाँव हैं । इनका मुखिया द्वारहाट का होता है । मेले का पहला दिन बाट्पुजे – मार्ग की पूजा या नानस्याल्दे कहा जाता है । बाट्पुजे का काम प्रतिवर्ष नौज्यूला वाले ही करते हैं । वे ही देवी को निमंत्रण भी देते हैं ।
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