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क्या होता है ‘memory trace’ और कान खराब होने पर सही क्यूँ नहीं हो पाते?

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मेमोरी ट्रैस (Memory trace) बनाएँ और करें सारा सिलेबस याद :- 

सेहत पर चर्चा । हमारा दिमाग हजारों चीज याद रख सकता है, तब जब वो सभी चीजें अपना मेमोरी ट्रैस छोड़ जाएँ। जैसे अगर आप कुछ नया सीखने लगते हैं तो दिमाग में एक चैन रिएक्शन सी बनने लगती है। जब ये रिएक्शन अणुओं तक पहुंचता है तो उसे मेमोरी ट्रैस (memory trace) कहते हैं । इसे बनने के लिए कान्सन्ट्रैशन की जरूरत होती है। अगर अगल – बगल स्मार्ट फोन रखा हो तो या कोई भी ऐसी चीज जो हमें डिस्ट्रैक्ट करे तो उससे कान्सन्ट्रैशन नहीं बन पाता। इसलिए ऐसी चीजों को खुद से दूर रखें। सबसे अच्छा होता है शांत जगह पर बैठना, जहां कोई परेशान करने वाला ना हो। वैसे देखा जाए तो लाइब्रेरी में भी दिमाग भटक सकता है क्योंकि वहाँ हमें अलग – अलग तरह की किताबें दिखती हैं ।

सबसे अच्छी तरह दिमाग तब काम करता है, जब अलग – अलग तरह के मेमोरी ट्रैस एक साथ बनते हैं । उदाहरण : यदि आप स्क्रीन देखते हैं तो आपको बस लिखे हुए शब्द दिखाई देते हैं, जबकि जब आप किताब से पढ़ते हैं तो आपको कागज का एहसास भी होता है। दिमाग तब ये भी नोट करता है की ये इनफार्मेशन दाहिने पेज पर थी या बाएँ पेज पर। ऐसे ही जब आप नोट्स बनाते हैं या उसके डाईग्राम बनाते हैं तो एक साथ कई मेमोरी ट्रैस बनने लगते हैं।

दूसरा सबसे आसान तरीका है बातें याद रखने का कि शब्दों को जोड़ – जोड़ कर कहानी सी गढ़ दी जाए वो भी एक मजाकिया तौर (funny way) पर। एक तरीका होता है जिसे हम कहते हैं “Method of loci (मेथड ऑफ लोसाई)” इसके लिए आप एक ऐसी जगह चुनें जिससे आप अच्छी तरह वाकिफ़ हों, जैसे आपका घर या रसोई या फिर वो रास्ता जो आप रोज लेते हैं। अब आपको जो बात याद रखनी है उसे  एक मजाकिया तरीके से जोड़ते हुए जाएं जैसे आपको शॉपिंग की लिस्ट याद करनी है तो आप सोचिए की आपने सेब को ड्रॉर मे रखा है या फिर टॉइलेट पेपर को किचन में रखा है, ऐसे ही बाकी सभी समान जो आपने याद रखना है उसे ऐसे ही एक चैन में पिरोते जाएँ।

जो भी बात आपको याद रखनी है उसे दोहराना भी जरूरी है। मेमोरी ट्रैस तभी लंबे समय तक रहते हैं, जब आप उनके बनने के अगले दिन तक उन्हें दोहरा लें। फिर वो नये शब्द हों या कोई फार्मूला। इसलिए स्कूल में टीचर हमें revision के लिए कहते हैं। दिमाग अपना काम सही तरीके से करे उसके लिए उसे आवश्यकता होती है भरपूर विटामिन और मिनरल्स की, इसके साथ ही खूब सारे कार्बोहाईडरेट्स की भी। भरपूर नींद का लेना भी आवश्यक है। दिमाग की सीखने की क्षमता कभी खत्म नहीं होती है, आप चाहें तो कुछ ना कुछ ताउम्र सीख सकते हैं।आप जानते हैं कि छोटे बच्चे भी इसी तरह से भाषा सीखते हैं। जब भी वह नया शब्द सुनते हैं तब तक उसे बार – बार दोहराते हैं  जब तक कि वो रट ना जाए।

लेकिन बच्चों के दिमाग को ये कैसे पता चलता है कि ये नया शब्द है ? आओ इसे भी जानते हैं । 

हमारे कान तरह – तरह के आकार के दिख सकते हैं यहाँ तक कि कभी -कभी हमारी पहचान हमारे कानों से भी कर ली जाती है, ये वैसे ही हैं जैसे फिंगर प्रिंटस। लेकिन हम सभी के कानों मे कुछ चीज़े कॉमन होती हैं, जैसे कॉकलीअ और स्टेपीस का ढांचा। हमारे कानों मे जो घुमाव व उठाव होते हैं वो इसलिए कि हम जो सुनते हैं उसे अच्छी तरह सुन सकें और पहचान सकें। हम सबके पास होते हैं एयर लूप्स। हालांकि अभी तक डॉक्टर ये नहीं जान पाए की इनका काम क्या है (DW के मुताबिक)। मुमकिन है कि इनमे खून का बहाव होने के कारण ये कान के बाहरी हिस्से को गरम रखने का काम करता है,  लेकिन ये कान आखिर बना कैसे ?

कान खराब होने पर सही क्यूँ नहीं हो पाते ?
by pixabay

साउन्ड वेव्स को समझने लायक सिग्नलस में बदलने की क्षमता सबसे पहले मछलियों में पैदा हुई थी। माना जाता है की विकास के क्रम में उनके गलफड़े हड्डियों में तब्दील हो गए जिससे कानों का अंदरूनी ढांचा बनता है। इन्हे एयरड्रम्स, स्टेपीस कहते हैं। ये amplifier की तरह काम करते हैं।

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कॉकलीअ की अंदरूनी परत पर हजारों बाल होते हैं लेकिन ये बाल बाकी शरीर की बाल कोशिकाओ से अलग होती हैं। ये अगर खराब हो जाए तो ठीक नहीं हो पाते हैं; इसीलिए कान खराब हो जाने पर उन्हे ठीक नहीं किया जा सकता है। कान की अंदरूनी हिस्से में जो बाल होते हैं वो सैन्सरी हेयर शैलस होते हैं। ये तरल की हलचल को इलेक्ट्रिक सिग्नलस में बदलते हैं फिर आखिर में वेस्टिबुलर नर्व की मदद से ब्रेन को सिग्नल जाता है। दिमाग इस आवाज को सुनता है और आवाज की पिच व इन्टेन्सिटी को भी समझने की कोशिश करता है। इस प्रकार हमारे कान एक पेचीदा मशीन होते है और यह हर नए शब्दों और आवाज को पहचान लेते हैं।

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