चर्चा परिवारों की। जर्मनी के महान फिलोसॉफर हुए कार्ल मार्क्स, जिनका नाम तो आपने सुना ही होगा। उन्हीं की तरह एक और जर्मन फिलोसॉफर थे Friedrich Engels (फ्रेडरिक एंगेल्स)। इन दोनों ने सैकड़ों लेख लिखे, जिन्हें कहा गया MEGA : MARX – ENGELS GESAMTAUSGABE । 1884 में एंगेल्स की एक किताब छपी “The Origin of the family, Private Property and the state”। इस किताब में इन्होंने लिखा कि “परिवार की संपत्ति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाने का सबसे आसान तरीका है Patriarchal Monogamous Family, जहां परिवार के मुख्या होंगे एक पापा, एक मम्मी और उनके बच्चे।” ऐसा अक्सर भारत के अधिकतर हिस्सों में देखा जाता है और फॅमिली लॉ भी इसी फिलोसफी के इर्द – गिर्द बने हैं। ट्रडिशनल फॅमिली को भारत ही नहीं, पश्चिमी देशों में भी समाज की सबसे मजबूत इकाई माना गया है। आप बड़े होते हैं, आपकी शादी होती है, फिर आपके बच्चे होते हैं …. आगे बच्चों के बच्चे होते हैं । परिवार ऐसे ही तो आगे बढ़ते हैं। अब सवाल ये है कि…..
-
क्या आज की पीढ़ी भी यही सोचती है ?
जैसे – जैसे समय बीत रहा है वैसे ही समाज में एक अलग ही चलन बढ़ता जा रहा है, जिसमें नवयुवक परिवार (Family) बनाने से डर रहे हैं। वह शादी करने से बचना चाह रहे हैं, तो कोई शादी कर रहे हैं पर बच्चे नहीं करना चाह रहे हैं। जी हाँ, इसका कारण वही है जो आप अभी सोच रहे हैं ! इतनी महंगाई में बच्चों की पढ़ाई, उनका लालन – पालन का खर्च ये सभी वो कारण हैं जिससे वर्तमान का युवा बचना चाह रहा है, वे अपना पूरा ध्यान अपने करिअर में लगाना चाहते हैं। भारत जैसे देश में युवाओं का मानना है – जिम्मेदारियों से नहीं, खर्चों से डर लगता है साहब !!
यह हाल सिर्फ इंडिया का नहीं है, ऑस्ट्रेलिया की एक रिसर्च कंपनी “The Red Bridge” ने 18 से 34 वर्ष के युवाओं पर एक रिसर्च किया। जिसमें आधे से अधिक लोगों ने कहा कि वे बच्चे इसलिए नहीं चाहते क्योंकि उनके सामने बढ़ी मात्रा में आर्थिक चुनौतियाँ हैं और इस बात को मान लेने में कोई हर्ज नहीं है कि आज की पीढ़ी को पहले की पीढ़ी की तुलना में फाइनैन्सीएली इंडिपेंडेंट (Financially Independent) होने के लिए पहले से अधिक मेहनत और समय लग रहा है।
परिणाम क्या होंगे ?
ऊपर लिखी गई इन सब बातों के क्या परिणाम होने की संभावना है? क्या आपने इस बारे में सोचा है ! बच्चे पैदा न करने का असर सीधे तौर पर बर्थ रेट पर देखने को मिल रहा है। इस वक्त दुनिया का बर्थ रेट है 2.2, जिसे TFR (Total fertility Rate) कहा जाता है। यदि यह 2.1 से नीचे जाता है तो दुनिया की आबादी घटने लगेगी। पिछले 70 सालों से यह आधे से भी कम हो गया है। 1950 में Global Fertility Rate 5 था। 2050 तक इसके 1.8 तक पहुँच जाने की संभावना जताई जा रही है। अगर ऐसा हुआ तो दुनिया के कम से कम 150 देशों की आबादी घट जाएगी। जापान में पिछले साल 5 लाख से भी कम बच्चे पैदा हुए हैं, बीते 90 सालों में यह सबसे कम संख्या रही। इसी तरह दक्षिण कोरिया की राजधानी सियोल का भी मौजूदा फर्टिलिटी रेट 0.5 है। वहाँ की युवा महिलाओं ने यह कहना शुरू कर दिया है कि इतनी महंगाई और इतने कम अधिकारों के चलते वो बच्चे पैदा करने के बजाय अपना पूरा ध्यान करिअर में लगाना बेहतर समझती हैं।
‘Cornellians University’ की एक स्टडी बताती है कि अमेरिका के 27 फीसदी युवा अपने परिवारों से पूरी तरह से कट चुके हैं। तो क्या पूरे भारत का भी यही हाल होगा?
पूरे भारत का तो नहीं पर बड़े शहरों का ये हाल हो सकता है क्योंकि वहाँ युवाओं ने मेरिज इन्स्टिट्यूशन (Marriage Institution) पर ही सवाल करने शुरू कर दिए हैं। नई पीढ़ी का परिवार (Family) को आगे बढ़ाने का मतलब सिर्फ बच्चे पैदा करना नहीं है, वो सोचते हैं कि जो मेरे साथ हो वही मेरा परिवार है, फिर चाहे वो दोस्त हो या पेड़ – पौधे ही क्यूँ ना हो ।
-
हम दो और हमारे दो ………….कुत्ते, बिल्ली ………etc.
-
क्या पालतू जानवर इंसान की भावनात्मक जरूरतों को पूरा कर सकते हैं ? क्या इंसान पालतू जानवरों को अपने बच्चों की जगह देने लगे हैं?
बेसिक ह्यूमन साइकोलॉजी है कि एक उम्र के बाद Motherly और fatherly extension होने लगते हैं लेकिन गूगल बाबा ने बताया है कि पेरेंट्स सिर्फ बच्चों के ही नहीं बना जा सकता .. अब लोग पालतू जानवर पालना मुनासिब समझ रहे हैं। इसका चलन कोविड महामारी के बाद ज्यादा देखने को मिला है। भारत में अब एक पेट केयर इंडस्ट्री (Pet Care Industry) खड़ी हो गई है। ऐसी कंपनियां बाजार मे हैं जो आपके पेट को अच्छा खाना या खिलौने ही नहीं बल्कि वेल बिहैव्यर ट्रैनिंग और ग्रूमिंग भी कराती है। आप अगर दिनभर घर से बाहर हैं तो अपने पेट को क्रैश में छोड़ सकते हैं। अगर लंबे समय के लिए बाहर जा रहे हैं तो ऐसे पेट केयर सेंटर (Pet Care Industry) हैं जो उसका खयाल रखेंगे। 2022 में ये पेट केयर इंडस्ट्री 74 हजार करोड़ की थी जो 2032 तक अनुमान है कि ये 2 लाख करोड़ तक हो जाएगी।
बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी फिलवक्त में युवाओं के सामने एक गंभीर चुनौती बनती जा रही है, जो जीवन जीने के पारंपरिक तौर तरीकों पर भी अपना असर छोड़ रही है। ऐसे हालात में किसे दोषी माना जाए ये अपने आप में शोचनीय विषय है।
(Inspired by DW)